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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 592
ऋषिः - अमहीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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स꣢ न꣣ इ꣡न्द्रा꣢य꣣ य꣡ज्य꣢वे꣣ व꣡रु꣢णाय म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । व꣣रिवोवि꣡त्परि꣢꣯स्रव ॥५९२॥
स्वर सहित पद पाठसः꣢ । नः꣣ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । य꣡ज्य꣢꣯वे । व꣡रु꣢꣯णाय । म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । व꣣रिवोवि꣢त् । व꣣रिवः । वि꣢त् । प꣡रि꣢꣯स्र꣣व ॥५९२॥
स्वर रहित मन्त्र
स न इन्द्राय यज्यवे वरुणाय मरुद्भ्यः । वरिवोवित्परिस्रव ॥५९२॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । नः । इन्द्राय । यज्यवे । वरुणाय । मरुद्भ्यः । वरिवोवित् । वरिवः । वित् । परिस्रव ॥५९२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 592
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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विषय - अगले दो मन्त्रों का पवमान सोम देवता है। इस मन्त्र में परमात्मा और राजा को कहा जा रहा है।
पदार्थ -
प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। हे पवमान सोम अर्थात् सर्वोत्पादक, सकल ऐश्वर्य के अधिपति, रसमय, पवित्रतादायक परमात्मन् ! (सः) सुप्रसिद्ध आप (नः) हमारे (यज्यवे) देह-रूप यज्ञ के सञ्चालक (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए, (वरुणाय) श्रेष्ठ संकल्पों का वरण करनेवाले मन के लिए और (मरुद्भ्यः) प्राणों के लिए (वरिवोवित्) उनके बलरूप ऐश्वर्य के प्राप्त करानेवाले होकर (परिस्रव) हृदय में सञ्चार करो ॥ द्वितीय—राष्ट्र-परक। हे पवमान सोम अर्थात् सब राज्याधिकारियों को अपने-अपने कर्तव्य कर्मों में प्रेरित करने तथा उनके दोषों को दूर कर पवित्रता देनेवाले राजन् ! (सः) वह प्रजाओं द्वारा राजा के पद पर अभिषिक्त किये हुए आप (नः) हमारे (यज्यवे) राष्ट्र-यज्ञ के कर्ता (इन्द्राय) सेनाध्यक्ष के लिए, (वरुणाय) असत्याचरण करनेवालों को बन्धन में बाँधनेवाले कारागार-अधिकारी के लिए और (मरुद्भ्यः) योद्धा सैनिकों के लिए (वरिवोवित्) देने योग्य उचित वेतनरूप धन के प्राप्त करानेवाले होकर (परिस्रव) राष्ट्र में सञ्चार करो ॥७॥
भावार्थ - परमेश्वर कृपा करके हमारे आत्मा, मन, प्राण, इन्द्रिय आदि को शरीर-राज्य चलाने का बलरूप धन और राजा नियुक्त राज्याधिकारियों को देय वेतनरूप धन सदा देता रहे। जो राजा अन्याय से सेवकों को वेतन से वंचित करता है, उसके प्रति वे पूर्णतः विद्रोह कर देते हैं ॥७॥
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