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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 615
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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भ्रा꣡ज꣢न्त्यग्ने समिधान दीदिवो जि꣣ह्वा꣡ च꣢रत्य꣣न्त꣢रा꣣स꣡नि꣢ । स꣡ त्वं नो꣢꣯ अग्ने꣣ प꣡य꣢सा वसु꣣वि꣢द्र꣣यिं꣡ वर्चो꣢꣯ दृ꣣शे꣡ऽदाः꣢ ॥६१५
स्वर सहित पद पाठभ्रा꣡ज꣢꣯न्ती। अ꣣ग्ने । समिधान । सम् । इधान । दीदिवः । जिह्वा꣢ । च꣣रति । अन्तः꣢ । आ꣣स꣡नि꣢ । सः । त्वम् । नः꣣ । अग्ने । प꣡य꣢꣯सा । व꣣सुवि꣢त् । व꣣सु । वि꣢त् । र꣣यि꣢म् । व꣡र्चः꣢꣯ । दृ꣣शे꣢ । दाः꣣ ॥६१५॥
स्वर रहित मन्त्र
भ्राजन्त्यग्ने समिधान दीदिवो जिह्वा चरत्यन्तरासनि । स त्वं नो अग्ने पयसा वसुविद्रयिं वर्चो दृशेऽदाः ॥६१५
स्वर रहित पद पाठ
भ्राजन्ती। अग्ने । समिधान । सम् । इधान । दीदिवः । जिह्वा । चरति । अन्तः । आसनि । सः । त्वम् । नः । अग्ने । पयसा । वसुवित् । वसु । वित् । रयिम् । वर्चः । दृशे । दाः ॥६१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 615
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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विषय - प्रथम ऋचा का अग्नि देवता है। अग्नि नाम से परमेश्वर, आचार्य और राजा को सम्बोधित किया गया है।
पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (समिधान) अतिशय प्रकाशयुक्त, (दीदिवः) सबको प्रकाशित करनेवाले (अग्ने) जगन्नायक परमात्मन् ! आपकी कृपा से (आसनि अन्तः) हमारे मुख के अन्दर (भ्राजन्ती) शोभित होती हुई (जिह्वा) जीभ (चरति)रसों का स्वाद लेती और शब्दों का उच्चारण करती है। (सः) वह (वसुवित्) ऐश्वर्यों को प्राप्त करानेवाले (त्वम्) आप, हे (अग्ने) परमात्मन् ! (नः) हमें (पयसा) जल, दूध, घी आदि रस के साथ (रयिम्) धन को, और (दृशे) कर्तव्याकर्तव्य के दर्शन के लिए (वर्चः) ज्ञान रूप तेज (दाः) प्रदान किये हुए हो ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। आचार्य रूप अग्नि में स्वयं को आहुत करने के लिए गुरुकुल में आये हुए समित्पाणि शिष्य कह रहे हैं—हे (समिधान) स्वयं ज्ञान से प्रदीप्त तथा (दीदिवः) शिष्यों को ज्ञान से प्रदीप्त करनेवाले (अग्ने) विद्वान् आचार्यप्रवर ! आपके (आसनि अन्तः) मुख के अन्दर (भ्राजन्ती) शास्त्रों का ज्ञान से उपदेश देने के कारण यश से जगमगाती हुई (जिह्वा) जीभ (चरति) शब्दों के उच्चारण के लिए तालु, दन्त आदि स्थानों में विचरती है। (सः) वह महिमाशाली, (वसुवित्) विविध विद्याधनों को प्राप्त करानेवाले (त्वम्) आप, हे (अग्ने) आचार्यवर ! (नः) हमारे (दृशे) कर्तव्य-दर्शन के लिए (पयसा) वेदज्ञान रूप दूध के साथ (रयिम्) सदाचार की सम्पदा को और (वर्चः) ब्रह्मवर्चस को (दाः) हमें प्रदान कीजिए ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। सिंहासन पर चढ़े हुए राजा के प्रति प्रजाजन कह रहे हैं—हे (समिधान) राजोचित प्रताप से देदीप्यमान, (दीदिवः) प्रजाओं को यश से प्रदीप्त करनेवाले (अग्ने) अग्रनायक राजन् ! (आसनि अन्तः) आपके धनुष् पर (भ्राजन्ती) दमकती हुई (जिह्वा) डोरी (चरति) चलती है अर्थात् खिंचती, छूटती और बाणों को फेंकती है। (सः) वह (वसुवित्) प्रजाओं को निवास प्राप्त करानेवाले (त्वम्) आप, हे (अग्ने) अग्नि के समान जाज्वल्यमान राष्ट्राधिपति ! (दृशे) राष्ट्र की ख्याति के लिए, प्रजा को (पयसा) दूध आदि रसों के साथ (रयिम्) धन, धान्य आदि सम्पदा और (वर्चः) ब्राह्म तेज (दाः) प्रदान कीजिए ॥ चतुर्थ—यज्ञाग्नि के पक्ष में। यजमान कह रहे हैं—हे (समिधान) प्रज्वलित, (दीदिवः) याज्ञिक को तेज से प्रज्वलित करनेवाले (अग्ने) यज्ञाग्नि ! (आसनि अन्तः) यज्ञकुण्ड रूप मुख के अन्दर (भ्राजन्ती) जगमगाती हुई (जिह्वा) तेरी ज्वाला रूप जीभ (चरति) लपलपाती है। (सः) वह (वसुवित्) हविरूप धन को प्राप्त करनेवाला (त्वम्) तू हे (अग्ने) यज्ञाग्नि ! (पयसा) वर्षाजल के साथ (रयिम्) सस्य-सम्पदा रूप तथा बल, बुद्धि, दीर्घायु आदि रूप धन को तथा (दृशे) देखने के लिए (वर्चः) प्रकाश को (दाः) प्रदान कर ॥ मुण्डक उपनिषद् के ऋषि ने अग्नि की जिह्वाएँ इस प्रकार वर्णित की हैं—काली, कराली, मन जैसे वेगवाली, अत्यन्त लाल, धुमैले रंग की, चिनगारियाँ छोड़नेवाली और सब रंगोंवाली ज्वालाएँ ये अग्नि की सात लपलपाती जिह्वाएँ हैं (मु० २।४)। अग्नि के मुख और जिह्वाओं का वर्णन करने के कारण यज्ञाग्निपरक अर्थ में असम्बन्ध में सम्बन्ध रूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥१॥
भावार्थ - जैसे जगदीश्वर मनुष्यों को जल, दूध, घी, ज्ञान आदि और यज्ञाग्नि वृष्टि, जल, बल, बुद्धि, दीर्घायुष्य आदि देता है, वैसे ही आचार्य को शिष्यों के लिए वेदविद्या, सदाचार, ब्रह्मतेज आदि प्रदान करना चाहिए और राजा को राष्ट्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों की उन्नति द्वारा प्रजाओं को सुखी करना चाहिए ॥१॥
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