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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 618
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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त्रि꣣पा꣢दू꣣र्ध्व꣢꣫ उदै꣣त्पु꣡रु꣢षः꣣ पादो꣢ऽस्ये꣣हा꣡भ꣢व꣣त्पु꣡नः꣢ । त꣢था꣣ वि꣢ष्व꣣꣬ङ् व्य꣢꣯क्रामदशनानश꣣ने꣢ अ꣣भि꣢ ॥६१८॥

स्वर सहित पद पाठ

त्रि꣣पा꣢त् । त्रि꣣ । पा꣢त् । ऊ꣣र्ध्वः꣢ । उत् । ऐ꣣त् । पु꣡रु꣢꣯षः । पा꣡दः꣢꣯ । अ꣣स्य । इह꣢ । अ꣣भवत् । पु꣢न꣣रि꣡ति꣢ । त꣡था꣢꣯ । वि꣡ष्व꣢꣯ङ् । वि । स्व꣣ङ् । वि꣢ । अ꣣क्रामत् । अशनानशने꣢ । अ꣣शन । आनशने꣡इति꣢ । अ꣣भि꣢ ॥६१८॥


स्वर रहित मन्त्र

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः । तथा विष्वङ् व्यक्रामदशनानशने अभि ॥६१८॥


स्वर रहित पद पाठ

त्रिपात् । त्रि । पात् । ऊर्ध्वः । उत् । ऐत् । पुरुषः । पादः । अस्य । इह । अभवत् । पुनरिति । तथा । विष्वङ् । वि । स्वङ् । वि । अक्रामत् । अशनानशने । अशन । आनशनेइति । अभि ॥६१८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 618
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(त्रिपात्) तीन-चौथाई अंशवाला (पुरुषः) पूर्वोक्त परमेश्वर (ऊर्ध्वः उत् ऐत्) इस जगत् से ऊपर उठा हुआ है। (इह पुनः) इस जगत् में तो (अस्य) इस पूर्ण परमेश्वर का (पादः) एक-चतुर्थांश ही (अभवत्) विद्यमान है। (तथा) उसी प्रकार से अर्थात् एक-चतुर्थांश की ही व्याप्ति से (वि-स्वङ्) विविध पदार्थों में सम्यक् प्राप्त हुआ वह (अशनानशने अभि) चेतन-अचेतन को लक्ष्य करके (व्यक्रामत्) विविध रुप से चेष्टा कर रहा है, अर्थात् मनुष्य आदि प्राणियों तथा अग्नि, सूर्य, पवन, पर्वत, नदी आदि चेतन-अचेतन के यथायोग्य प्राणन आदि व्यापार को तथा स्थिति आदि व्यापार को कर रहा है ॥४॥

भावार्थ - इस चेतन-अचेतन-रूप जगत् में जो महान् कर्तृत्व दृष्टिगोचर हो रहा है, उसमें परमेश्वर के सामर्थ्य का थोड़ा-सा अंश ही क्रियाशील है, परमेश्वर का वास्तविक सामर्थ्य और स्वरूप तो लोकातिक्रान्त है ॥४॥

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