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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 62
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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स꣡खा꣢यस्त्वा ववृमहे दे꣣वं꣡ मर्ता꣢꣯स ऊ꣣त꣡ये꣢ । अ꣣पां꣡ नपा꣢꣯तꣳ सु꣣भ꣡ग꣢ꣳ सु꣣द꣡ꣳस꣢सꣳ सु꣣प्र꣡तू꣢र्तिमने꣣ह꣡स꣢म् ॥६२॥

स्वर सहित पद पाठ

स꣡खा꣢꣯यः । स꣢ । खा꣣यः । त्वा । ववृमहे । देवम्꣢ । म꣡र्ता꣢꣯सः । ऊ꣣त꣡ये꣢ । अ꣣पा꣢म् । न꣣पा꣢꣯तम् । सु꣣भ꣡ग꣢म् । सु꣣ । भ꣡ग꣢꣯म् । सु꣣दँ꣡ऽस꣢सम् । सु꣣ । दँ꣡स꣢꣯सम् । सु꣣प्र꣡तू꣢र्तिम् । सु꣣ । प्र꣡तू꣢꣯र्त्तिम् । अ꣣नेह꣡स꣢म् । अ꣣न् । एह꣡स꣢म् ॥६२॥


स्वर रहित मन्त्र

सखायस्त्वा ववृमहे देवं मर्तास ऊतये । अपां नपातꣳ सुभगꣳ सुदꣳससꣳ सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥६२॥


स्वर रहित पद पाठ

सखायः । स । खायः । त्वा । ववृमहे । देवम् । मर्तासः । ऊतये । अपाम् । नपातम् । सुभगम् । सु । भगम् । सुदँऽससम् । सु । दँससम् । सुप्रतूर्तिम् । सु । प्रतूर्त्तिम् । अनेहसम् । अन् । एहसम् ॥६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 62
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(मर्तासः) मरणधर्मा, (सखायः) समान ख्यातिवाले हम साथी लोग (देवम्) ज्योतिर्मय और ज्योति देनेवाले, (अपां नपातम्) व्याप्त प्रकृति का और जीवात्माओं का विनाश न करनेवाले, (सुभगम्) उत्तम ऐश्वर्यवाले, (सुदंससम्) शुभ कर्मोंवाले, (सुप्रतूर्तिम्) अत्यन्त शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले, (अनेहसम्) हिंसा न किये जा सकने योग्य, निष्पाप, सज्जनों के प्रति क्रोध न करनेवाले (त्वा) तुझ परमेश्वररूप अग्नि को (ऊतये) आत्मरक्षा और प्रगति के लिए (ववृमहे) वरण करते हैं ॥८॥ इस मन्त्र में विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकरालङ्कार है ॥८॥

भावार्थ - कल्याण की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को चाहिए कि वे मिलकर परम तेजस्वी, तेजः-प्रदाता, प्रलयकाल में नश्वर पदार्थों के विनाशक, नित्य पदार्थों के अविनाशक, सर्वैश्वर्यवान्, शुभकर्मकर्ता, विचारे हुए कार्यों को शीघ्र पूर्ण करनेवाले, किसी से हिंसित या पराजित न होनेवाले, निष्पाप, सज्जनों पर क्रोध न करनेवाले, दुष्टों पर कुपित होनेवाले, जगद्व्यवस्थापक, सबके मङ्गलकारी परमेश्वर की श्रद्धा से उपासना करें ॥८॥ इस दशति में अग्नि, यूप, द्रविणोदस् और बृहस्पति नामों से परमेश्वर के गुण-कर्मों का वर्णन होने से और उसके प्रति आत्म-समर्पण करने का फल वर्णित होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है, यह जानना चाहिए ॥ प्रथम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥

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