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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 630
ऋषिः - सार्पराज्ञी
देवता - सूर्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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आ꣡यं गौः पृश्नि꣢꣯रक्रमी꣣द꣡स꣢दन्मा꣣त꣡रं꣢ पु꣣रः꣢ । पि꣣त꣡रं꣢ च प्र꣣य꣡न्त्स्वः꣢ ॥६३०॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । अ꣣य꣢म् । गौः । पृ꣡श्निः꣢꣯ । अ꣣क्रमीत् । अ꣡स꣢꣯दत् । मा꣣त꣡र꣢म् । पु꣣रः꣢ । पि꣣त꣡र꣢म् । च꣣ । प्रय꣢न् । प्र꣣ । य꣢न् । स्व३रि꣡ति꣢ ॥६३०॥
स्वर रहित मन्त्र
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्त्स्वः ॥६३०॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । अयम् । गौः । पृश्निः । अक्रमीत् । असदत् । मातरम् । पुरः । पितरम् । च । प्रयन् । प्र । यन् । स्व३रिति ॥६३०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 630
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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विषय - अगले मन्त्र में सूर्य, पृथिवीलोक, परमात्मा, जीवात्मा और स्तोता का वर्णन है।
पदार्थ -
प्रथम—सूर्य के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः गौः) रंग-बिरंगा सूर्य (आ अक्रमीत्) चारों ओर अक्ष-परिभ्रमण कर रहा है। (पुरः) सामने स्थित हुआ (मातरम्) हमारी मातृभूमि को (असदत्) किरणों द्वारा प्राप्त होता है, (च) और (पितरम्) हमारे पितृतुल्य (स्वः) अन्तरिक्ष को भी (प्रयन्) किरणों द्वारा प्राप्त होता हुआ स्थित है ॥ द्वितीय—भूमण्डल के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः) रंग-बिरंगा (गौः) भूमण्डल (आ अक्रमीत्) अपने चारों ओर अक्ष-परिभ्रमण कर रहा है और (पुरः) पश्चिम से पूर्व-पूर्व की ओर (पितरम्) अपने पिता (स्वः) सूर्य के चारों ओर भी (प्रयन्) गति करता हुआ (मातरम्) अन्तरिक्ष रूप माता की गोद में (असदत्) स्थित है। पृथिवी का भ्रमण भी सूर्य के ही महत्त्व को प्रकट करता है, अतः इस पक्ष में भी मन्त्र का देवता सूर्य होने में कोई दोष नहीं आता ॥ तृतीय—परमेश्वर के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः) ज्योतिर्मय (गौः) सर्वज्ञ, सर्वव्यापी परमेश्वर (आ अक्रमीत्) शरीर में और ब्रह्माण्ड में चारों ओर गया हुआ है, अर्थात् अन्तर्यामी है, (मातरम्) निश्चयात्मक ज्ञान की जननी बुद्धि के (पुरः) आगे (असदत्) स्थित होता है, (च) और (पितरम्) पालनकर्ता (स्वः) सुख के भोक्ता जीवात्मा को (प्रयन्) प्राप्त होता है ॥ चतुर्थ—जीवात्मा के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः) चित्र-विचित्र कर्मसंस्कारों से युक्त (गौः) प्रयत्नशील, विज्ञाता जीवात्मा (आ अक्रमीत्) कर्मों के अनुसार मनुष्य-शरीर को प्राप्त होता है। (पुरः) पहले (मातरम्) माता को अर्थात् माता के गर्भाशय को (असदत्) प्राप्त होता है, (च) और जन्म के अनन्तर (स्वः) विज्ञानप्रकाश से युक्त (पितरम्) पिता को (प्रयन्) प्राप्त होता है ॥ पञ्चम—स्तोता के पक्ष में। (अयम्) यह (पृश्निः) आश्चर्यमय गुणोंवाला (गौः) ज्ञानज्योति से सूर्यवत् भासमान स्तोता (आ अक्रमीत्) चारों ओर पुरुषार्थ करता है, (पुरः) आगे होकर (मातरम्) वेदवाणी रूप माता को (असदत्) प्राप्त करता है, (च) और (स्वः)प्रकाशमान (पितरम्) परमात्मा रूप पिता को (प्रयन्) प्राप्त करने का यत्न करता है ॥ निघण्टु ३।१६ के अनुसार गौ स्तोता का वाचक होता है ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥४॥
भावार्थ - सूर्य की स्थानान्तर गति नहीं है, वह अपनी धुरी पर ही घूमता है और पृथिवी तथा अन्य ग्रहों-उपग्रहों सोम, मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदियों को अपनी किरणों से प्राप्त होकर प्रकाशित करता है। पृथिवी की दो प्रकार की गति है, पहली उसकी अपनी धुरी पर, जिसके द्वारा अहोरात्र बनते हैं, दूसरी अपनी नियत कक्षा में सूर्य के चारों ओर, जिससे संवत्सरचक्र चलता है। परमेश्वर सर्वव्यापक होता हुआ शरीर में स्थित आत्मा, मन और बुद्धि आदियों का तथा ब्रह्माण्ड में स्थित सूर्य, चन्द्रमा एवं पृथिवी आदियों का सञ्चालन करता है। जीवात्मा शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार माता के गर्भ को प्राप्त करके जन्म ग्रहण करता है और परमात्मा का स्तोता पुरुषार्थी होकर वेदवाणीरूप माता को तथा पिता परमात्मा को प्राप्त करता है ॥४॥
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