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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 643
ऋषिः - प्रजापतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - 0
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ए꣣वा꣢꣫ हि श꣣क्रो꣢ रा꣣ये꣡ वाजा꣢꣯य वज्रिवः । श꣡वि꣢ष्ठ वज्रिन्नृ꣣ञ्ज꣢से꣣ म꣡ꣳहि꣢ष्ठ वज्रिन्नृ꣣ञ्ज꣢स꣣ । आ꣡ या꣢हि꣣ पि꣢ब꣣ म꣡त्स्व꣢ ॥६४३

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣वा꣢ । हि । श꣣क्रः꣢ । रा꣣ये꣢ । वा꣡जा꣢꣯य । व꣣ज्रिवः । श꣡वि꣢꣯ष्ठ । व꣣ज्रिन् । ऋञ्ज꣡से꣢ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठ । व꣣ज्रिन् । ऋञ्ज꣡से꣢ । आ । या꣣हि । पि꣡ब꣢꣯ । म꣡त्स्व꣢꣯ ॥६४३॥


स्वर रहित मन्त्र

एवा हि शक्रो राये वाजाय वज्रिवः । शविष्ठ वज्रिन्नृञ्जसे मꣳहिष्ठ वज्रिन्नृञ्जस । आ याहि पिब मत्स्व ॥६४३


स्वर रहित पद पाठ

एवा । हि । शक्रः । राये । वाजाय । वज्रिवः । शविष्ठ । वज्रिन् । ऋञ्जसे । मँहिष्ठ । वज्रिन् । ऋञ्जसे । आ । याहि । पिब । मत्स्व ॥६४३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 643
(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 3
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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पदार्थ -
हे परमैश्वर्यशालिन् इन्द्र परमात्मन् ! आप (एव हि) सचमुच ही (शक्रः) शक्तिशाली हैं। हे (वज्रिवः) वज्रधर के समान शत्रुविदारक ! हमें (राये) अध्यात्म-सम्पदा और (वाजाय) शारीरिक एवं आत्मिक बल का पात्र बनाओ। हे (शविष्ठ) बलिष्ठ ! हे (वज्रिन्) पापों पर वज्र-प्रहार करनेवाले ! आप (ऋञ्जसे) हमें सद्गुणों के अलङ्कारों से अलङ्कृत कीजिए। हे (मंहिष्ठ) अतिशय दानशील ! हे (वज्रिन्) ओजस्वी ! आप, हमें (ऋञ्जसे) परिपक्व करके ओजस्वी बना दीजिए। हे भगवन् ! (आ याहि) आइए, (पिब) हमारे श्रद्धारस का पान कीजिए, (मत्स्व) हमें कर्तव्यपरायण देखकर प्रसन्न होइए ॥३॥ इस मन्त्र में ‘ष्ठ वज्रिन्नृञ्जसे’ की आवृत्ति में यमकालङ्कार है। ‘वज्रि’ की तीन बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है। ‘आयाहि, पिब, मत्स्व’ इन अनेक क्रियाओं का एक कारक के साथ योग होने के कारण दीपक अलङ्कार है ॥३॥

भावार्थ - जो परमेश्वर सब कर्मों में समर्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी, सबसे बड़ा दानी, पापादि का विनाशक और गुणों से अलङ्कृत करनेवाला है, उसमें सबको श्रद्धा करनी चाहिए ॥३॥

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