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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 649
ऋषिः - प्रजापतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - 0
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प्र꣣भो꣢꣯ जन꣢꣯स्य वृत्रह꣣न्त्स꣡मर्ये꣢षु ब्रवावहै । शू꣢रो꣣ यो꣢꣫ गोषु꣣ ग꣡च्छ꣢ति꣣ स꣡खा꣢ सु꣣शे꣢वो꣣ अ꣡द्व꣢युः ॥६४९

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣣भो꣢ । प्र꣣ । भो꣢ । ज꣡न꣢꣯स्य । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । स꣢म् । अ꣣र्ये꣡षु꣢ । ब्र꣣वावहै । शू꣡रः꣢꣯ । यः । गो꣡षु꣢꣯ । ग꣡च्छ꣢꣯ति । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । सुशे꣡वः꣢ । सु꣣ । शे꣡वः꣢꣯ । अ꣡द्व꣢꣯युः । अ । द्वयुः꣣ ॥६४९॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रभो जनस्य वृत्रहन्त्समर्येषु ब्रवावहै । शूरो यो गोषु गच्छति सखा सुशेवो अद्वयुः ॥६४९


स्वर रहित पद पाठ

प्रभो । प्र । भो । जनस्य । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । सम् । अर्येषु । ब्रवावहै । शूरः । यः । गोषु । गच्छति । सखा । स । खा । सुशेवः । सु । शेवः । अद्वयुः । अ । द्वयुः ॥६४९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 649
(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 9
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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पदार्थ -
हे (प्रभो) जगदीश्वर ! हे (जनस्य) मुझ उपासक के (वृत्रहन्) पापहर्ता ! आओ, मैं और तुम (अर्येषु) प्राप्तव्य आध्यात्मिक ऐश्वर्यों के विषय में (सं ब्रवावहै) संवाद करें कि कौन-कौन-से ऐश्वर्य मुझे प्राप्त करने तथा तुम्हें देने हैं, (शूरः) विघ्नों के वध में शूर (यः) जो तुम (गोषु) स्तोताओं के हृदयों में (गच्छति) पहुँचते हो और जो तुम (सखा) स्तोताओं के सखा, (सुशेवः) उत्कृष्ट सुख के दाता तथा (अद्वयुः) सामने कुछ और पीछे कुछ इस प्रकार के दोहरे आचरण से रहित अर्थात् सदा हितकर ही होते हो ॥९॥

भावार्थ - उपासकों का हार्दिक प्रेम देखकर उनके साथ मानो संवाद करता हुआ परमेश्वर उनका सखा, विघ्नों को हरनेवाला तथा मोक्ष के आनन्द को देनेवाला हो जाता है ॥९॥

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