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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 657
ऋषिः - शतं वैखानसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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प꣡व꣢मानस्य ते कवे꣣ वा꣢जि꣣न्त्स꣡र्गा꣢ असृक्षत । अ꣡र्व꣢न्तो꣣ न꣡ श्र꣢व꣣स्य꣡वः꣢ ॥६५७॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡व꣢꣯मानस्य । ते꣣ । कवे । वा꣡जि꣢꣯न् । स꣡र्गाः꣢꣯ । अ꣣सृक्षत । अ꣡र्व꣢꣯न्तः । न । श्र꣣वस्य꣡वः꣢ ॥६५७॥


स्वर रहित मन्त्र

पवमानस्य ते कवे वाजिन्त्सर्गा असृक्षत । अर्वन्तो न श्रवस्यवः ॥६५७॥


स्वर रहित पद पाठ

पवमानस्य । ते । कवे । वाजिन् । सर्गाः । असृक्षत । अर्वन्तः । न । श्रवस्यवः ॥६५७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 657
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे (कवे) वेदकाव्य के कवि ! हे (वाजिन्) बली परमेश्वर ! (पवमानस्य ते) तुझ पवित्र करनेवाले की (सर्गाः) आनन्द-धाराएँ (श्रवस्यवः) हमें यशस्वी बनाना चाहती हुई (असृक्षत) छूट रही हैं, (न) जैसे (अर्वन्तः) घोड़े [घुड़साल से छूटते हैं।] घोड़े भी कैसे होते हैं? (श्रवस्यवः) घासादि भोज्य को चाहनेवाले। अभिप्राय यह है कि जैसे बाहर जाकर चरागाहों में घास चरना चाहनेवाले घोड़े घुड़साल में से उत्सुकतापूर्वक निकलते हैं, ऐसे ही आपकी आनन्दधाराएँ आपमें से निकलकर हमें आनन्दित कर रही हैं ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ‘श्रवस्यवः’ में श्लेष है ॥१॥

भावार्थ - परमात्मा के उपासक लोग परमात्मा से अपने आत्मा में प्रवेश करते हुए महान् आनन्द के झरनों को साक्षात् अनुभव करते हैं ॥१॥

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