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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 685
ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती) स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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तं꣡ वो꣢ द꣣स्म꣡मृ꣢ती꣣ष꣢हं꣣ व꣡सो꣢र्मन्दा꣣न꣡मन्ध꣢꣯सः । अ꣣भि꣢ व꣣त्सं꣡ न स्वस꣢꣯रेषु धे꣣न꣢व꣣ इ꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡र्न꣢वामहे ॥६८५॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣢म् । वः꣣ । दस्म꣢म् । ऋ꣣तीष꣡ह꣢म् । ऋ꣣ती । स꣡ह꣢꣯म् । व꣡सोः꣢꣯ । म꣣न्दान꣢म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । अ꣣भि꣢ । व꣣त्स꣢म् । न । स्व꣡स꣢꣯रेषु । धे꣣न꣡वः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । न꣣वामहे ॥६८५॥


स्वर रहित मन्त्र

तं वो दस्ममृतीषहं वसोर्मन्दानमन्धसः । अभि वत्सं न स्वसरेषु धेनव इन्द्रं गीर्भिर्नवामहे ॥६८५॥


स्वर रहित पद पाठ

तम् । वः । दस्मम् । ऋतीषहम् । ऋती । सहम् । वसोः । मन्दानम् । अन्धसः । अभि । वत्सम् । न । स्वसरेषु । धेनवः । इन्द्रम् । गीर्भिः । नवामहे ॥६८५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 685
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे मन, इन्द्रिय आदि प्राणो ! हम (वः) तुम्हारे (दस्मम्) दोषों को नष्ट करनेवाले, (ऋतीषहम्) आक्रमणकारी काम, क्रोध आदि शत्रुओं को परास्त करनेवाले, (वसोः) निवासप्रद (अन्धसः) आनन्दरस से (मन्दानम्) आनन्दित होनेवाले (इन्द्रम्) अपने अन्तरात्मा के (अभि) अभिमुख होकर (स्वसरेषु) दिनों के उदय के समय अर्थात् प्रभात कालों (गीर्भिः) उद्बोधक वाणियों से (नवामहे) गुण वर्णनरूप स्तुति करते हैं। किस प्रकार? (स्वसरेषु) गोशालाओं में (धेनवः) गौएँ (वत्सम् अभि) नवजात बछड़े के अभिमुख होकर (न) जैसे रंभाती हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थ - अपने अन्तरात्मा को भली-भाँति उद्बोधन देकर, दोषों को दूर करके तथा सद्गुणों को प्राप्त करके हम परम यशस्वी बन सकते हैं ॥१॥

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