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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 698
ऋषिः - अन्धीगुः श्यावाश्विः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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यो꣡ धार꣢꣯या पाव꣣क꣡या꣢ परिप्र꣣स्य꣡न्द꣢ते सु꣣तः꣢ । इ꣢न्दु꣣र꣢श्वो꣣ न꣡ कृत्व्यः꣢꣯ ॥६९८॥

स्वर सहित पद पाठ

यः । धा꣡र꣢꣯या । पा꣣वक꣡या꣢ । प꣣रिप्रस्य꣡न्द꣢ते । प꣣रि । प्रस्य꣡न्द꣢ते । सु꣣तः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । अ꣡श्वः꣢꣯ । न । कृ꣡त्व्यः꣢꣯ ॥६९८॥


स्वर रहित मन्त्र

यो धारया पावकया परिप्रस्यन्दते सुतः । इन्दुरश्वो न कृत्व्यः ॥६९८॥


स्वर रहित पद पाठ

यः । धारया । पावकया । परिप्रस्यन्दते । परि । प्रस्यन्दते । सुतः । इन्दुः । अश्वः । न । कृत्व्यः ॥६९८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 698
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(सुतः) उत्पन्न किया गया (यः) जो (पावकया) पवित्र करनेवाली (धारया) धारा के साथ (परिप्रस्यन्दते) चारों ओर बहता है, वह (इन्दुः) ज्ञान, कर्म और उपासना से मिलनेवाला आनन्द (कृत्व्यः) संग्राम में कुशल (अश्वः न) घोड़े के समान (कृत्व्यः) कृतार्थ करनेवाला होता है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थ - वे लोग धन्य हैं, जो ज्ञान, कर्म और उपासना से प्राप्त होनेवाले अगाध आनन्द का अनुभव करते हैं ॥२॥

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