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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 710
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - ककुबुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
7
अ꣢धा꣣꣬ ही꣢꣯न्द्र गिर्वण꣣ उ꣡प꣢ त्वा꣣ का꣡म꣢ ई꣣म꣡हे꣢ ससृ꣣ग्म꣡हे꣢ । उ꣣दे꣢व꣣ ग्म꣡न्त꣢ उ꣣द꣡भिः꣢ ॥७१०॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ध꣢꣯ । हि । इ꣣न्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः । उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । का꣡मे꣢꣯ । ई꣣म꣡हे꣢ । स꣣सृग्म꣡हे꣢ । उ꣣दा꣢ । इ꣣व । ग्म꣡न्तः꣢꣯ । उ꣣द꣡भिः꣢ ॥७१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा काम ईमहे ससृग्महे । उदेव ग्मन्त उदभिः ॥७१०॥
स्वर रहित पद पाठ
अध । हि । इन्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः । उप । त्वा । कामे । ईमहे । ससृग्महे । उदा । इव । ग्मन्तः । उदभिः ॥७१०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 710
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ४०६ क्रमाङ्क पर जगदीश्वर के विषय में की गयी थी। यहाँ शिष्य ब्रह्मवेत्ता आचार्य को कह रहे हैं।
पदार्थ -
हे (गिर्वणः) उपदेशवाणियों के लिये सेवनीय (इन्द्र) ब्रह्मवेत्ता आचार्यप्रवर ! (अध हि) अब हम शिष्य लोग (कामे) ब्रह्मसाक्षात्काररूपी मनोरथ की पूर्ति के लिये (त्वा) तेरे (उप) (ईमहे) समीप पहुँचते हैं और (ससृग्महे) तेरे साथ निकट संसर्ग प्राप्त करते हैं। कैसे? (उदा इव) जैसे जलों के बीच से (ग्मन्तः) जाते हुए लोग (उदभिः) जलों से संसर्ग को पाते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ‘महे, महे’ और ‘उदे, उद’ में छेकानुप्रास है ॥१॥
भावार्थ - जब जिज्ञासुजन समित्पाणि होकर आचार्य के प्रति स्वयं को समर्पित करके उसके सान्निध्य में रहते हैं और उससे कुछ भी नहीं छिपाते हैं, तभी वे उसके पास से अपरा विद्या और परा विद्या सीख पाते हैं ॥१॥
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