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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 733
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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इ꣣ह꣢ त्वा꣣ गो꣡प꣢रीणसं म꣣हे꣡ म꣢न्दन्तु꣣ रा꣡ध꣢से । स꣡रो꣢ गौ꣣रो꣡ यथा꣢꣯ पिब ॥७३३॥

स्वर सहित पद पाठ

इह꣢ । त्वा꣣ । गो꣡प꣢꣯रीणसम् । गो । प꣣रीणसम् । महे꣣ । म꣣न्दन्तु । रा꣡ध꣢꣯से । स꣡रः꣢꣯ । गौ꣣रः꣢ । य꣡था꣢꣯ । पि꣢ब ॥७३३॥


स्वर रहित मन्त्र

इह त्वा गोपरीणसं महे मन्दन्तु राधसे । सरो गौरो यथा पिब ॥७३३॥


स्वर रहित पद पाठ

इह । त्वा । गोपरीणसम् । गो । परीणसम् । महे । मन्दन्तु । राधसे । सरः । गौरः । यथा । पिब ॥७३३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 733
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
हे मेरे अन्तरात्मन् ! (इह) इस शरीर में (गोपरीणसम्) मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियाँ आदि बहुत सी गौएँ जिसके पास हैं, ऐसे (त्वा) तुझे, हमारी उद्बोधक वाणियाँ (महे राधसे) महान् ऐश्वर्य के लिए (मन्दन्तु) उत्साहित करें। (गौरः) गौर मृग प्यास से व्याकुल होकर (यथा) जैसे उत्कण्ठा के साथ (सरः) जल को पीता है, वैसे ही तू (सरः) वेदवाणी के रस, ज्ञान-रस, कर्म-रस और ब्रह्मानन्द के रस को (पिब) पी ॥३॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ - मनुष्य अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन देकर अपनी महत्वाकांक्षा के अनुरूप सब लौकिक और दिव्य सम्पदाओं को प्राप्त कर सकते हैं ॥३॥

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