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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 746
ऋषिः - नारदः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
6
इ꣡न्द्र꣢ सु꣣ते꣢षु꣣ सो꣣मे꣢षु꣣ क्र꣡तुं꣢ पुनीष उ꣣꣬क्थ्य꣢꣯म् । वि꣣दे꣢ वृ꣣ध꣢स्य꣣ द꣡क्ष꣢स्य म꣣हा꣢ꣳ हि षः ॥७४६॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯ । सु꣣ते꣡षु꣢ । सो꣡मे꣢꣯षु । क्र꣡तु꣢꣯म् । पु꣣नीषे । उ꣣क्थ्य꣢꣯म् । वि꣣दे꣢ । वृ꣣ध꣡स्य꣢ । द꣡क्ष꣢꣯स्य । म꣣हा꣢न् । हि । सः ॥७४६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र सुतेषु सोमेषु क्रतुं पुनीष उक्थ्यम् । विदे वृधस्य दक्षस्य महाꣳ हि षः ॥७४६॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्र । सुतेषु । सोमेषु । क्रतुम् । पुनीषे । उक्थ्यम् । विदे । वृधस्य । दक्षस्य । महान् । हि । सः ॥७४६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 746
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३८१ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के महत्व के विषय में हो चुकी है। यहाँ आचार्य का महत्त्व वर्णित है।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्यवर ! आप (सोमेषु) ज्ञानरसों के (सुतेषु) अभिषुत करने के साथ-साथ, हम विद्यार्थियों के (क्रतुम्) कर्म को भी (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय रूप में (पुनीषे) पवित्र करते हो। (वृधस्य) बढ़े हुए (दक्षस्य) उत्साह के (विदे) प्राप्त कराने के लिए (सः) वह आप (महान् हि) बड़े महत्त्वपूर्ण हो ॥१॥
भावार्थ - जैसे विद्याप्रदान करना आचार्य का कर्तव्य है, वैसे पवित्र आचार का प्रदान करना भी कर्तव्य है। कहा भी है—आचार्य को आचार्य इस कारण कहते हैं क्योंकि वह आचार का ग्रहण कराता है (निरु० १|४) ॥१॥
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