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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 759
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ए꣣ष꣢ प्र꣣त्ने꣢न꣣ म꣡न्म꣢ना दे꣣वो꣢ दे꣣वे꣢भ्य꣣स्प꣡रि꣢ । क꣣वि꣡र्विप्रे꣢꣯ण वावृधे ॥७५९॥

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣षः꣢ । प्र꣣त्ने꣡न꣢ । म꣡न्म꣢꣯ना । दे꣣वः꣢ । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । क꣡विः꣢ । वि꣡प्रे꣢꣯ण । वि । प्रे꣣ण । वावृधे ॥७५९॥


स्वर रहित मन्त्र

एष प्रत्नेन मन्मना देवो देवेभ्यस्परि । कविर्विप्रेण वावृधे ॥७५९॥


स्वर रहित पद पाठ

एषः । प्रत्नेन । मन्मना । देवः । देवेभ्यः । परि । कविः । विप्रेण । वि । प्रेण । वावृधे ॥७५९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 759
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(एषः) यह (देवः) प्रकाशक, (कविः) बुद्धिमान् परमात्मारूप सोम (प्रत्नेन मन्मना) पुरातन वैदिक स्तोत्र द्वारा (देवेभ्यः) दिव्य गुणों के प्रदान के लिए (विप्रेण) बुद्धिमान् विद्वान् उपासक के द्वारा (परि वावृधे) चारों ओर बढ़ता है ॥२॥ परमात्मा में वस्तुतः बढ़ना रूप धर्म न होने से यहाँ असम्बन्ध में सम्बन्ध रूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थ - उपासक से वेदमन्त्रों द्वारा भली-भाँति उपासना किया गया परमात्मा सर्वत्र प्रचार पाकर मानो बढ़ता है ॥२॥

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