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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 776
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
6
त्व꣡ꣳ स꣢मु꣣द्रि꣡या꣢ अ꣣पो꣢ऽग्रि꣣यो꣡ वाच꣢꣯ ई꣣र꣡य꣢न् । प꣡व꣢स्व विश्वचर्षणे ॥७७६॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । स꣣मुद्रि꣡याः꣢ । स꣣म् । उद्रि꣡याः꣢ । अ꣣पः꣢ । अ꣣ग्रि꣢यः । वा꣡चः꣢꣯ । ई꣣र꣡य꣢न् । प꣡व꣢꣯स्व । वि꣣श्वचर्षणे । विश्व । चर्षणे ॥७७६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वꣳ समुद्रिया अपोऽग्रियो वाच ईरयन् । पवस्व विश्वचर्षणे ॥७७६॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । समुद्रियाः । सम् । उद्रियाः । अपः । अग्रियः । वाचः । ईरयन् । पवस्व । विश्वचर्षणे । विश्व । चर्षणे ॥७७६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 776
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में पुनः जगदीश्वर से प्रार्थना करते हैं।
पदार्थ -
हे (विश्वचर्षणे) सबके द्रष्टा, अथवा सब मनुष्यों के स्वामी जगदीश्वर ! (वाचः) उपासकों की वाणी के (अग्रियः) आगे रहनेवाले (त्वम्) पवित्रकर्ता आप (समुद्रियाः) आनन्दसागर के (अपः) रसों को (ईरयन्) हमारी ओर भेजते हुए, हमें (पुनीहि) पवित्र कीजिए ॥२॥
भावार्थ - परमेश्वर की स्तुति निष्फल नहीं जाती, प्रत्युत वह अपने उपासकों को आनन्दरस से सरस और पवित्र कर देता है ॥२॥
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