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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 809
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
6
त्वा꣡मिद्धि हवा꣢꣯महे सा꣣तौ꣡ वाज꣢꣯स्य का꣣र꣡वः꣢ । त्वां꣢ वृ꣣त्रे꣡ष्वि꣢न्द्र꣣ स꣡त्प꣢तिं꣣ न꣢र꣣स्त्वां꣢꣫ काष्ठा꣣स्व꣡र्व꣢तः ॥८०९॥
स्वर सहित पद पाठत्वा꣢म् । इत् । हि । ह꣡वा꣢꣯महे । सा꣣तौ꣢ । वा꣡ज꣢꣯स्य । का꣣र꣡वः꣢ । त्वाम् । वृ꣣त्रे꣡षु꣢ । इ꣣न्द्र । स꣡त्प꣢꣯तिम् । सत् । प꣣तिम् । न꣡रः꣢꣯ । त्वाम् । का꣡ष्ठा꣢꣯सु । अ꣡र्व꣢꣯तः ॥८०९॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामिद्धि हवामहे सातौ वाजस्य कारवः । त्वां वृत्रेष्विन्द्र सत्पतिं नरस्त्वां काष्ठास्वर्वतः ॥८०९॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम् । इत् । हि । हवामहे । सातौ । वाजस्य । कारवः । त्वाम् । वृत्रेषु । इन्द्र । सत्पतिम् । सत् । पतिम् । नरः । त्वाम् । काष्ठासु । अर्वतः ॥८०९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 809
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २३४ क्रमाङ्क पर परमेश्वर और राजा के पक्ष में व्याख्यात हुई थी। यहाँ परमात्मा और जीवात्मा का आह्वान है।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) परमात्मन् वा जीवात्मन् ! (कारवः) कर्मशूर हम (वाजस्य) संग्राम की (सातौ) प्राप्ति होने पर (त्वाम् इत् हि) तुझे ही (हवामहे) पुकारते या उद्बोधन देते हैं। (वृत्रेषु) शत्रुओं वा विघ्नों के उमड़ने पर (सत्पतिम्) सज्जनों के पालनकर्ता (त्वाम्) तुझे ही पुकारते या उद्बोधन देते हैं। (नरः) सभी मनुष्य (काष्ठासु) दिशाओं में (अर्वतः) हिंसक शत्रु से रक्षार्थ (त्वाम्) तुझे ही पुकारते या उद्बोधन देते हैं ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा की कृपा से और आत्मोद्बोधन से सभी विघ्न और सभी शत्रु क्षण भर में पराजित किये जा सकते हैं ॥१॥
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