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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 826
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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मो꣢꣫ षु ब्र꣣ह्मे꣡व꣢ तदिन्द्र꣣यु꣡र्भुवो꣢꣯ वाजानां पते । म꣡त्स्वा꣢ सु꣣त꣢स्य꣣ गो꣡म꣢तः ॥८२६॥

स्वर सहित पद पाठ

मा । उ꣣ । सु꣢ । ब्र꣣ह्मा꣢ । इ꣣व । तन्द्रयुः꣢ । भु꣡वः꣢꣯ । वा꣣जानाम् । पते । म꣡त्स्व꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । गो꣡म꣢꣯तः ॥८२६॥


स्वर रहित मन्त्र

मो षु ब्रह्मेव तदिन्द्रयुर्भुवो वाजानां पते । मत्स्वा सुतस्य गोमतः ॥८२६॥


स्वर रहित पद पाठ

मा । उ । सु । ब्रह्मा । इव । तन्द्रयुः । भुवः । वाजानाम् । पते । मत्स्व । सुतस्य । गोमतः ॥८२६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 826
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
हे (वाजानां पते) बलों के अधिपति मेरे अन्तरात्मन् ! (ब्रह्मा इव) यज्ञ के ब्रह्मा के समान उच्च पद पर विद्यमान तू (मा उ सु) कभी मत (तन्द्रयुः) आलसी (भुवः) हो और (गोमतः सुतस्य) गोदुग्धयुक्त सोमरस से अर्थात् ज्ञानकर्मयुक्त उपासना-रस से (मत्स्व) आनन्द लाभ करता रह ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ - मनुष्यों को चाहिए कभी कि प्रमाद न करें, प्रत्युत जागरूक होकर सब शुभकर्मों में उत्साह धारण करें ॥३॥

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