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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 829
ऋषिः - जेता माधुच्छन्दसः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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पू꣣र्वी꣡रिन्द्र꣢꣯स्य रा꣣त꣢यो꣣ न꣡ वि द꣢꣯स्यन्त्यू꣣त꣡यः꣢ । य꣣दा꣡ वाज꣢꣯स्य꣣ गो꣡म꣢त स्तो꣣तृ꣢भ्यो꣣ म꣡ꣳह꣢ते म꣣घ꣢म् ॥८२९॥

स्वर सहित पद पाठ

पू꣣र्वीः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । रा꣣त꣡यः꣢ । न । वि । द꣣स्यन्ति । ऊत꣡यः꣢ । य꣣दा꣢ । वा꣡ज꣢꣯स्य । गो꣡म꣢꣯तः । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । म꣡ꣳह꣢꣯ते । म꣣घ꣢म् ॥८२९॥


स्वर रहित मन्त्र

पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्यन्त्यूतयः । यदा वाजस्य गोमत स्तोतृभ्यो मꣳहते मघम् ॥८२९॥


स्वर रहित पद पाठ

पूर्वीः । इन्द्रस्य । रातयः । न । वि । दस्यन्ति । ऊतयः । यदा । वाजस्य । गोमतः । स्तोतृभ्यः । मꣳहते । मघम् ॥८२९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 829
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवान् अविद्याविदारक जगदीश्वर वा आचार्य के (रातयः) दान (पूर्वीः) श्रेष्ठ हैं। उस जगदीश्वर वा आचार्य की (ऊतयः) रक्षाएँ (न विदस्यन्ति) कभी क्षीण नहीं होतीं, (यदा) जब वह (स्तोतृभ्यः) अपने सद्गुण व सत्कर्मों के प्रशंसकों को (गोमतः) प्रशस्त गाय, वाणी, विद्या, भूमि, इन्द्रिय आदि से युक्त (वाजस्य) बल का (मघम्) धन (मंहते) प्रदान करता है ॥३॥

भावार्थ - जैसे जगदीश्वर के दान, रक्षण आदि सबको नित्य प्राप्त होते हैं, वैसे ही आचार्य के भी सदाचार-विद्या आदि के दान और अविद्या, दुर्गुण, दुर्व्यसन आदि से रक्षण निरन्तर प्रजाओं को प्राप्त करने चाहिएँ ॥३॥ इस खण्ड में अन्तरात्मा के उद्बोधनपूर्वक जगदीश्वर तथा आचार्य का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्वखण्ड के साथ सङ्गति है ॥ तृतीय अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥ द्वितीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥

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