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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 847
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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मि꣣त्र꣡ꣳ हु꣢वे पू꣣त꣡द꣢क्षं꣣ व꣡रु꣢णं च रि꣣शा꣡द꣢सम् । धि꣡यं꣢ घृ꣣ता꣢ची꣣ꣳ सा꣡ध꣢न्ता ॥८४७॥

स्वर सहित पद पाठ

मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्र꣢म् । हु꣣वे । पूत꣡द꣢क्षम् । पू꣣त꣢ । द꣣क्षम् । व꣡रु꣢꣯णम् । च꣣ । रिशा꣡द꣢सम् । धि꣡य꣢꣯म् । घृ꣣ता꣡ची꣢म् । सा꣡ध꣢꣯न्ता ॥८४७॥


स्वर रहित मन्त्र

मित्रꣳ हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् । धियं घृताचीꣳ साधन्ता ॥८४७॥


स्वर रहित पद पाठ

मित्रम् । मि । त्रम् । हुवे । पूतदक्षम् । पूत । दक्षम् । वरुणम् । च । रिशादसम् । धियम् । घृताचीम् । साधन्ता ॥८४७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 847
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
मैं (पूतदक्षम्) पवित्र बल को देनेवाले (मित्रम्) सबके मित्र ब्राह्मण को और (रिशादसम्) हिंसक शत्रुओं को नष्ट करनेवाले (वरुणं च) शत्रुनिवारक क्षत्रिय को (हुवे) पुकारता हूँ। वे दोनों (घृताचीम्) राष्ट्र को तेज प्राप्त करानेवाली (धियम्) ज्ञानशृङ्खला एवं कर्मशृङ्खला को (साधन्तौ) सिद्ध करनेवाले होते हैं ॥१॥

भावार्थ - राष्ट्र में ब्राह्मण पवित्र ज्ञान-विज्ञान के बल को बढ़ाते हैं और क्षत्रिय शत्रुओं से राष्ट्र की रक्षा करते हैं, इसलिए उन्नति चाहनेवालों को दोनों का सदा सत्कार और पोषण करना चाहिए ॥१॥

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