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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 86
ऋषिः - वसूयव आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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य꣡द्वाहि꣢꣯ष्ठं꣣ त꣢द꣣ग्न꣡ये꣢ बृ꣣ह꣡द꣢र्च विभावसो । म꣡हि꣢षीव꣣ त्व꣢द्र꣣यि꣢꣫स्त्वद्वाजा꣣ उ꣡दी꣢रते ॥८६॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣢त् । वा꣡हि꣢꣯ष्ठम् । तत् । अ꣣ग्न꣡ये꣢ । बृ꣣ह꣢त् । अ꣣र्च । विभावसो । विभा । वसो । म꣡हि꣢꣯षी । इ꣣व । त्व꣢त् । र꣣यिः꣢ । त्वत् । वा꣡जाः꣢꣯ । उत् । ई꣣रते ॥८६॥


स्वर रहित मन्त्र

यद्वाहिष्ठं तदग्नये बृहदर्च विभावसो । महिषीव त्वद्रयिस्त्वद्वाजा उदीरते ॥८६॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । वाहिष्ठम् । तत् । अग्नये । बृहत् । अर्च । विभावसो । विभा । वसो । महिषी । इव । त्वत् । रयिः । त्वत् । वाजाः । उत् । ईरते ॥८६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 86
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
(यत्) जो स्तोत्र (वाहिष्ठम्) हृदयगत भक्तिभाव का अतिशय वाहक हो (तत्) वही (अग्नये) तेजःस्वरूप परमात्मा के लिए, देय होता है। तदनुसार, हे (विभावसो) तेजोधन जीवात्मन् ! तू उस परमात्मा की (बृहत्) बहुत (अर्च) पूजा कर। हे परमात्मन् ! (त्वत्) आपके पास से (महिषी इव) महती भूमि के समान (रयिः) समस्त धन तथा (त्वत्) आपके पास से (वाजाः) अन्न और बल (उदीरते) उत्पन्न होते हैं ॥६॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विशाल पृथिवी तुझसे उत्पन्न होती है, वैसे ही तुझसे रयि और वाज भी उत्पन्न होते हैं, यह भाव है ॥६॥

भावार्थ - जैसे परमात्मा ने हमारे उपकार के लिए भूमि रची है, वैसे ही सब धन-धान्य आदि और बल-पराक्रम, सद्गुण आदि भी हमें दिए हैं। इसलिए हार्दिक भक्तिभाव से उसकी वन्दना करनी चाहिए ॥६॥

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