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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 882
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
6
त꣢द꣢द्या꣡ चि꣢त्त उ꣣क्थि꣡नोऽनु꣢꣯ ष्टुवन्ति पू꣣र्व꣡था꣢ । वृ꣡ष꣢पत्नी꣣रपो꣡ ज꣢या दि꣣वे꣡दि꣢वे ॥८८२॥
स्वर सहित पद पाठत꣢त् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । चि꣣त् । ते । उक्थि꣡नः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । स्तु꣡वन्ति । पूर्व꣡था꣢ । वृ꣡ष꣢꣯पत्नीः । वृ꣡ष꣢꣯ । प꣣त्नीः । अपः꣢ । ज꣢य । दिवे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे ॥८८२॥
स्वर रहित मन्त्र
तदद्या चित्त उक्थिनोऽनु ष्टुवन्ति पूर्वथा । वृषपत्नीरपो जया दिवेदिवे ॥८८२॥
स्वर रहित पद पाठ
तत् । अद्य । अ । द्य । चित् । ते । उक्थिनः । अनु । स्तुवन्ति । पूर्वथा । वृषपत्नीः । वृष । पत्नीः । अपः । जय । दिवेदिवे । दिवे । दिवे ॥८८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 882
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - अगले मन्त्र में फिर उन्हीं परमेश्वर, आचार्य और राजा को सम्बोधन है।
पदार्थ -
हे इन्द्र अर्थात् परमात्मन् आचार्य वा राजन् ! (पूर्वथा) पूर्वकाल के समान (अद्य) आज भी (उक्थिनः) स्तोताजन, शास्त्रों का अध्ययन करनेवाले शिष्यजन वा प्रशंसक प्रजाजन (ते) आपके (तत्) उस आनन्द-ज्ञान-बल-धन-प्रदान आदि के कर्म की (अनु स्तुवन्ति) अनुक्रम से स्तुति करते हैं। आप (दिवे दिवे) प्रतिदिन (वृषपत्नीः) वृष अर्थात् धर्म जिनका रक्षक है, ऐसे (अपः) कर्मों को (जय) वश में कीजिए व हमें प्राप्त कराइये, जैसे सूर्यरूप इन्द्र (वृषपत्नीः) बादल जिनका पति है, ऐसे (अपः) जलों को वश करता तथा बरसाता है ॥३॥ इस मन्त्र में श्लिष्ट व्यङ्ग्योपमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - जैसे परमेश्वर सबके हृदय में धर्म की प्ररेणा करता है, वैसे ही गुरुजनों को शिष्यों में और राजा को प्रजाजनों में धर्म की प्रेरणा सदा करनी चाहिए ॥३॥
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