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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 897
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
प꣡रि꣢ णः शर्म꣣य꣢न्त्या꣣ धा꣡र꣢या सोम वि꣣श्व꣡तः꣢ । स꣡रा꣢ र꣣से꣡व꣢ वि꣣ष्ट꣡प꣢म् ॥८९७॥
स्वर सहित पद पाठप꣡रि꣢꣯ । नः꣣ । शर्मय꣡न्त्या꣢ । धा꣡र꣢꣯या । सो꣣म । विश्व꣡तः꣢ । स꣡र꣢꣯ । र꣣सा꣢ । इ꣣व । विष्ट꣡प꣢म् ॥८९७॥
स्वर रहित मन्त्र
परि णः शर्मयन्त्या धारया सोम विश्वतः । सरा रसेव विष्टपम् ॥८९७॥
स्वर रहित पद पाठ
परि । नः । शर्मयन्त्या । धारया । सोम । विश्वतः । सर । रसा । इव । विष्टपम् ॥८९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 897
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्मा तथा आचार्य से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ -
हे (सोम) रसागार परमात्मन् वा आचार्य ! आप (शर्मयन्त्या) सुख देनेवाली (धारया) अध्यात्मप्रकाश की धारा वा ज्ञान की धारा के साथ (विश्वतः) सब ओर से (नः) हमें (परि सर) प्राप्त हों। (रसा इव) जैसे रसीली वर्षा (विष्टपम्) भूलोक को प्राप्त होती है ॥६॥ यहाँ उपमालङ्कार है। ‘सरा, रसे’ में वृत्त्यनुप्रास है ॥६॥
भावार्थ - जैसे बादल में से पर्वतों पर हुई वर्षा नदीरूप में भूमि के प्रदेशों को सींचती हुई समुद्र को प्राप्त होती है, वैसे ही परमात्मा वा आचार्य से निकली हुई अन्तःप्रकाश की धारा मन, बुद्धि आदियों को सींचती हुई जीवात्मा को प्राप्त होती है ॥६॥ इस खण्ड में परमेश्वर और उपासक, परमेश्वर और उसके रचे हुए सूर्य एवं परमात्मा और आचार्य का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ पञ्चम अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥
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