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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 913
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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इ꣡न्द्रो꣢ दधी꣣चो꣢ अ꣣स्थ꣡भि꣢र्वृ꣣त्रा꣡ण्यप्र꣢꣯तिष्कुतः । ज꣣घा꣡न꣢ नव꣣ती꣡र्नव꣢꣯ ॥९१३॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । द꣣धीचः꣢ । अ꣢स्थ꣡भिः꣢ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः । जघा꣡न꣢ । न꣣वतीः꣢ । न꣡व꣢꣯ ॥९१३॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः । जघान नवतीर्नव ॥९१३॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रः । दधीचः । अस्थभिः । वृत्राणि । अप्रतिष्कुतः । अ । प्रतिष्कुतः । जघान । नवतीः । नव ॥९१३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 913
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(अप्रतिष्कुतः) कोई भी शत्रु जिसका मुकाबला नहीं कर सकता, ऐसा (इन्द्रः) शत्रुविदारक जगदीश्वर (दधीचः) लोकों के धारणकर्ता तथा अपनी धुरी पर घूमनेवाले सूर्य की (अस्थभिः) अस्थियों के तुल्य किरणों से (नव नवतीः) निन्यानवे प्रतिशत (वृत्राणि) रोग, मलिनता आदियों को (जघान) नष्ट कर देता है ॥१॥

भावार्थ - अहो, कैसा है जगदीश्वर का महान् कर्म कि वह विशाल सूर्यरूप साधन से प्रायः सभी रोग, मल आदि को नष्ट करके हमारे जीवनों को सुरक्षित कर देता है। यदि वह मलों को हरनेवाले सूर्य को न रचता तो भूमण्डल अनेक व्याधियों से और सारे मलों से परिपूर्ण होकर निवासयोग्य भी न रहता ॥१॥

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