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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 917
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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शृ꣣णुतं꣡ ज꣢रि꣣तु꣢꣫र्हव꣣मि꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ व꣡न꣢तं꣣ गिरः꣢ । ई꣢शाना꣡ पि꣢प्यतं꣣ धि꣡यः꣢ ॥९१७॥

स्वर सहित पद पाठ

शृणुत꣢म् । ज꣣रितुः꣢ । ह꣡व꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢꣯ । व꣡न꣢꣯तम् । गि꣡रः꣢꣯ । ई꣣शाना꣢ । पि꣣प्यतम् । धि꣡यः꣢꣯ ॥९१७॥


स्वर रहित मन्त्र

शृणुतं जरितुर्हवमिन्द्राग्नी वनतं गिरः । ईशाना पिप्यतं धियः ॥९१७॥


स्वर रहित पद पाठ

शृणुतम् । जरितुः । हवम् । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । वनतम् । गिरः । ईशाना । पिप्यतम् । धियः ॥९१७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 917
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! तुम दोनों (जरितुः) प्रशंसक के (हवम्) उद्बोधन को (शृणुतम्) सुनो। (गिरः) स्तुतिवाणियों को (वनतम्) उच्चारित करो। (ईशाना) देह के अधिष्ठाता तुम दोनों (धियः) ज्ञानों और कर्मों को (पिप्यतम्) बढ़ाओ ॥२॥ यहाँ एक कर्त्ता-कारक से अनेक क्रियाओं का योग होने से दीपक अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थ - मनुष्य को चाहिए कि आत्मा और मन का उपयोग करके परमेश्वर की उपासना, ज्ञान का संग्रह तथा सत्कर्म करे ॥२॥

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