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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 934
ऋषिः - पुरुहन्मा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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इ꣢न्द्रं꣣ त꣡ꣳ शु꣢म्भ पुरुहन्म꣣न्न꣡व꣢से꣣ य꣡स्य꣢ द्वि꣣ता꣡ वि꣢ध꣣र्त्त꣡रि꣢ । ह꣡स्ते꣢न꣣ व꣢ज्रः꣣ प्र꣡ति꣢ धायि दर्श꣣तो꣢ म꣣हा꣢न् दे꣣वो꣡ न सूर्यः꣢꣯ ॥९३४॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯म् । तम् । शु꣣म्भ । पुरुहन्मन् । पुरु । हन्मन् । अ꣡व꣢꣯से । य꣡स्य꣢꣯ । द्वि꣣ता꣢ । वि꣣ध꣡र्तरि꣢ । वि꣣ । धर्त꣡रि꣢ । ह꣡स्ते꣢꣯न । व꣡ज्रः꣢꣯ । प्र꣡ति꣢꣯ । धा꣣यि । दर्श꣢तः । म꣣हा꣢न् । दे꣣वः꣢ । न । सू꣡र्यः꣢꣯ ॥९३४॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रं तꣳ शुम्भ पुरुहन्मन्नवसे यस्य द्विता विधर्त्तरि । हस्तेन वज्रः प्रति धायि दर्शतो महान् देवो न सूर्यः ॥९३४॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रम् । तम् । शुम्भ । पुरुहन्मन् । पुरु । हन्मन् । अवसे । यस्य । द्विता । विधर्तरि । वि । धर्तरि । हस्तेन । वज्रः । प्रति । धायि । दर्शतः । महान् । देवः । न । सूर्यः ॥९३४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 934
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (पुरुहन्मन्) बहुत से शत्रुओं के विनाशक मानव ! तू (अवसे) प्रगति के लिए (तम्) उस प्रसिद्ध (इन्द्रम्) परमवीर परमेश्वर को (शुम्भ) अपने अन्तरात्मा में शोभित कर, (यस्य विधर्तरि) जिसे धारण करनेवाले मनुष्य के अन्दर (द्विता) दो प्रकार की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। परमेश्वर को अपने अन्दर धारण करनेवाले उस मनुष्य द्वारा एक ओर तो (हस्तेन) हाथ से (दर्शतः) दर्शनीय (वज्रः) शस्त्रास्त्र (प्रति धायि) पकड़ा जाता है और दूसरी ओर वह (देवः सूर्यः न) प्रकाशक सूर्य के समान (महान्) महिमाशाली हो जाता है ॥२॥

भावार्थ - अपने अन्तरात्मा में परमात्मा को धारण करने से मनुष्य के अन्दर महान् बल, साहस, तेज, धैर्य और शत्रुपराजय-सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है ॥२॥ इस खण्ड में परमात्मा-जीवात्मा, उपास्य-उपासक एवं मानव-प्रेरणा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ पञ्चम अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥

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