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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 938
ऋषिः - शक्तिर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती)
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
64
त्व꣢ꣳ ह्या꣣꣬३꣱ङ्ग꣡ दै꣢व्य꣣ प꣡व꣢मान꣣ ज꣡नि꣢मानि द्यु꣣म꣡त्त꣢मः । अ꣣मृतत्वा꣡य꣢ घो꣣ष꣡य꣢न् ॥९३८॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । हि । अ꣣ङ्ग꣡ । दै꣣व्य । प꣡वमा꣢꣯न । ज꣡नि꣢꣯मानि । द्यु꣣म꣡त्त꣢मः । अ꣣मृतत्वा꣡य꣢ । अ꣣ । मृतत्वा꣡य꣢ । घो꣣ष꣡य꣢न् ॥९३८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वꣳ ह्या३ङ्ग दैव्य पवमान जनिमानि द्युमत्तमः । अमृतत्वाय घोषयन् ॥९३८॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । हि । अङ्ग । दैव्य । पवमान । जनिमानि । द्युमत्तमः । अमृतत्वाय । अ । मृतत्वाय । घोषयन् ॥९३८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 938
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५८३ पर परमात्मा के विषय में व्याख्या की गयी थी। यहाँ आचार्य और शिष्य के विषय का उपदेश करते हैं।
पदार्थ -
हे (अङ्ग) भद्र, (दैव्य) विद्वान् गुरु के शिष्य, (पवमान) चित्तशुद्धिप्रदाता आचार्य ! (द्युमत्तमः) अतिशय ज्ञानप्रकाश से युक्त (त्वं हि) आप (अमृतत्वाय) सुख के प्रदानार्थ (जनिमानि) शिष्यों के ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य रूप द्वितीय जन्मों की (घोषयन्) घोषणा किया करो ॥१॥
भावार्थ - माता-पिता से एक जन्म मिलता है, दूसरा जन्म आचार्य से प्राप्त होता है। जब शिष्य विद्याव्रतस्नातक होते हैं उस समय आचार्य गुणकर्मानुसार यह ब्राह्मण है, यह क्षत्रिय है, यह वैश्य है इस प्रकार स्नातकों को वर्ण देते हैं। उस काल में प्रथम जन्म का कोई ब्राह्मण भी गुण कर्म की कसौटी से क्षत्रिय या वैश्य बन सकता है,क्षत्रिय भी ब्राह्मण या वैश्य बन सकता है और वैश्य या शूद्र भी ब्राह्मण या क्षत्रिय बन सकता है ॥१॥
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