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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 959
ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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के꣣तुं꣢ कृ꣣ण्व꣢न् दि꣣व꣢꣫स्परि꣣ वि꣡श्वा꣢ रू꣣पा꣡भ्य꣢र्षसि । स꣣मुद्रः꣡ सो꣢म पिन्वसे ॥९५९॥

स्वर सहित पद पाठ

के꣣तु꣢म् । कृ꣣ण्व꣢न् । दि꣣वः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯ । रु꣣पा꣢ । अ꣣भि꣢ । अ꣣र्षसि । समुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । सो꣣म । पिन्वसे ॥९५९॥


स्वर रहित मन्त्र

केतुं कृण्वन् दिवस्परि विश्वा रूपाभ्यर्षसि । समुद्रः सोम पिन्वसे ॥९५९॥


स्वर रहित पद पाठ

केतुम् । कृण्वन् । दिवः । परि । विश्वा । रुपा । अभि । अर्षसि । समुद्रः । सम् । उद्रः । सोम । पिन्वसे ॥९५९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 959
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (सोम) जगत् को उत्पन्न करनेवाले परमात्मन् ! आप (दिवः परि) चमकीले सूर्य से (केतुम्) प्रकाश को (कृण्वन्) करते हुए (विश्वा रूपा) सब रूपों में (अभ्यर्षसि) व्याप्त हो। वह आप (समुद्रः) मेघ के समान (पिन्वसे) रस की वर्षा करते हो ॥२॥ यहाँ लुप्तोपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थ - जगदीश्वर जैसे सूर्य से प्रकाश को और बादल से वर्षा को बिखेरता है, वैसे ही ज्ञान का प्रकाश और आनन्द की वर्षा भी करता है ॥२॥

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