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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 973
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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स꣡ वह्नि꣢꣯र꣣प्सु꣢ दु꣣ष्ट꣡रो꣢ मृ꣣ज्य꣡मा꣢नो꣣ ग꣡भ꣢स्त्योः । सो꣡म꣢श्च꣣मू꣡षु꣢ सीदति ॥९७३॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । व꣡ह्निः꣢꣯ । अ꣣प्सु꣢ । दु꣣ष्ट꣡रः꣢ । दुः꣣ । त꣡रः꣢꣯ । मृ꣣ज्य꣡मा꣢नः । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः । सो꣡मः꣢꣯ । च꣣मू꣡षु꣢ । सी꣣दति ॥९७३॥


स्वर रहित मन्त्र

स वह्निरप्सु दुष्टरो मृज्यमानो गभस्त्योः । सोमश्चमूषु सीदति ॥९७३॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । वह्निः । अप्सु । दुष्टरः । दुः । तरः । मृज्यमानः । गभस्त्योः । सोमः । चमूषु । सीदति ॥९७३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 973
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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पदार्थ -
(वह्निः) जगत् के भार को ढोनेवाला, (दुष्टरः) दुस्तर, (मृज्यमानः) श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभावों से अलंकृत होनेवाला (स सोमः) वह जगत्पति परमेश्वर (अप्सु) नद, नदी, समुद्र, बादल आदि के जलों में (गभस्त्योः) सौम्य एवं तैजस रूप वाली चन्द्र-सूर्य की किरणों में, (चमूषु) द्यावापृथिवी के मध्य विद्यमान विभिन्न लोकों में (सीदति) बैठा हुआ है ॥६॥

भावार्थ - अगणित ग्रह, उपग्रह, सूर्य, नक्षत्र आदियों से युक्त इस अति विस्तीर्ण विश्वब्रह्माण्ड में कोई कण भर भी स्थान नहीं है, जहाँ परमेश्वर विद्यमान न हो ॥६॥

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