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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 983
ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
5
वा꣡तो꣢पजूत इषि꣣तो꣢꣫ वशा꣣ꣳ अ꣡नु तृ꣣षु꣢꣫ यदन्ना꣣ वे꣡वि꣢षद्वि꣣ति꣡ष्ठ꣢से । आ꣡ ते꣢ यतन्ते र꣣थ्यो꣢३꣱य꣢था꣣ पृ꣢थ꣣क्श꣡र्धा꣢ꣳस्यग्ने अ꣣ज꣡र꣢स्य꣣ ध꣡क्ष꣢तः ॥९८३॥
स्वर सहित पद पाठवा꣡तो꣢꣯पजूतः । वा꣡त꣢꣯ । उ꣣पजूतः । इषि꣢तः । व꣡शा꣢꣯न् । अ꣡नु꣢꣯ । तृ꣣षु꣢ । यत् । अ꣡न्ना꣢꣯ । वे꣡वि꣢꣯षत् । वि꣡ति꣡ष्ठ꣢से । वि꣣ । ति꣡ष्ठ꣢꣯से । आ । ते꣣ । यतन्ते । रथ्यः꣢ । य꣡था꣢꣯ । पृ꣡थ꣢꣯क् । श꣡र्धा꣢꣯ꣳसि । अग्ने । अज꣡र꣢स्य । अ꣣ । ज꣡र꣢꣯स्य । ध꣡क्ष꣢꣯तः ॥९८३॥
स्वर रहित मन्त्र
वातोपजूत इषितो वशाꣳ अनु तृषु यदन्ना वेविषद्वितिष्ठसे । आ ते यतन्ते रथ्यो३यथा पृथक्शर्धाꣳस्यग्ने अजरस्य धक्षतः ॥९८३॥
स्वर रहित पद पाठ
वातोपजूतः । वात । उपजूतः । इषितः । वशान् । अनु । तृषु । यत् । अन्ना । वेविषत् । वितिष्ठसे । वि । तिष्ठसे । आ । ते । यतन्ते । रथ्यः । यथा । पृथक् । शर्धाꣳसि । अग्ने । अजरस्य । अ । जरस्य । धक्षतः ॥९८३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 983
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
विषय - अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।
पदार्थ -
हे (अग्ने) भौतिक अग्नि ! (वातोपजूतः) वायु से कम्पित किया हुआ, (वशान् अनु) अभीष्ट वनस्पतियों को लक्ष्य करके (इषितः) प्रेरित हुआ तू (तृषु) तुरन्त (यत्) जब (अन्ना) अन्नों अर्थात् भक्ष्य वनस्पति आदियों में (वेविषत्) व्याप्त होता हुआ (वितिष्ठसे) इधर-उधर चञ्चल होता है, तब (अजरस्य) जीर्ण न होते हुए तथा (धक्षतः) जलाते हुए (ते) तुझ अग्नि के (शर्धांसि) ज्वालारूपी तेज (रथ्यः यथा) रथारोही योद्धाओं के समान (पृथक्) पृथक्-पृथक् दिशाओं में (आयतन्ते) उठते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - जैसे रथारोही योद्धा लोग संग्राम में पृथक्-पृथक् विभिन्न दिशाओं में शत्रुओं पर प्रहार करते हैं, वैसे ही जंगलों को भस्म करने के लिए उद्यत अग्नि-ज्वालाएँ पृथक्-पृथक् विभिन्न दिशाओं में जलाने का कार्य करती हैं ॥२॥
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