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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 113
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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त꣡द꣢ग्ने द्यु꣣म्न꣡मा भ꣢꣯र꣣ य꣢त्सा꣣सा꣢हा꣣ स꣡द꣢ने꣣ कं꣡ चि꣢द꣣त्रि꣡ण꣢म् । म꣣न्युं꣡ जन꣢꣯स्य दू꣣꣬ढ्य꣢꣯म् ॥११३॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣢त् । अ꣣ग्ने । द्युम्न꣢म् । आ । भ꣣र । य꣢त् । सा꣣सा꣡ह꣢ । स꣡द꣢꣯ने । कम् । चि꣣त् । अत्रि꣡ण꣢म् । म꣣न्यु꣢म् । ज꣡न꣢꣯स्य । दू꣣ढ्य꣢꣯म् ॥११३॥


स्वर रहित मन्त्र

तदग्ने द्युम्नमा भर यत्सासाहा सदने कं चिदत्रिणम् । मन्युं जनस्य दूढ्यम् ॥११३॥


स्वर रहित पद पाठ

तत् । अग्ने । द्युम्नम् । आ । भर । यत् । सासाह । सदने । कम् । चित् । अत्रिणम् । मन्युम् । जनस्य । दूढ्यम् ॥११३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 113
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
(अग्ने) हे तेजःस्वरूप परमात्मन्! (तत्-द्युम्नम्-आभर) उस तेजस्वी यश—यशोरूप बल को “द्युम्नं द्योततेर्यशो वाऽन्नं वा” [निरु॰ ५.५] “द्युवीर्यबल” “द्युम्निनीराप एता इति वीर्यवत्य इत्येवैतदाह” [श॰ ५.३.५.१९] समन्तरूप—पूर्णरूप से भर दें (यत्) जो (जनस्य-अत्रिणं कं चित्-मन्युं दूढ्यम्) अन्य मनुष्य के मेरे प्रति किये घातक पाप कर्म को “पाप्मानोऽत्रिणः” [ष॰ ३.१] क्रोध को क्रुद्धवाणी को और दुश्चिन्तन दुर्विचार को “दूढ्यं दुर्धियम्” [निरु॰ ५.२] (सदने सासाहा) मेरे हृदयसदन में पूर्णरूप में सह सके दबा सके तथा (जनस्य कं चित् मन्युं दुर्धियम्-अत्रिणम्) अन्य जन के प्रति क्रोध और दुविचार जो मुझे खा जाने वाला है उसको (सदने सासाह) मेरे हृदयसदन में पूर्णरूप से दबा सके—किञ्चत् भी कभी उठने का अवसर न दे सके जिसे मैं अन्य जन के प्रति सदा निरुद्वेग और निर्वैर रहकर अपने देह और अन्तःस्थल को पुष्ट करता रहूँ। “यहाँ श्लोषालङ्कार से वाक्य दो अर्थों वाला है।”

भावार्थ - उपासकजन या मुमुक्षु को अपने जीवन में परमात्मा के उस यशोमय तेज को पूर्णरूप से धारण करना चाहिए या उसकी याचना करनी चाहिए जिससे उसके प्रति किसी अन्य जन के किए पाप कर्म क्रुद्धवाणी और दुश्चिन्तन को हृदय में सह सके उसका प्रतिरोध न उठ सके तथा अन्य जन के प्रति भी अपने से होने वाले क्रोध—वाग्दोष दुश्चिन्तन जो अपने को खा जाने वाला है उसे अपने हृदय में न उठने दें ऐसा उपासक या मुमुक्षु अपने को निरन्तर उन्नत करता चला जाता है॥७॥

विशेष - ऋषिः—सौभरिः कण्वः (परमात्माग्नि को अपने अन्दर भरण धारण करने में कुशल मेधावी जन)॥<br>

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