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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1181
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
5

मृ꣣ज꣡न्ति꣢ त्वा꣣ द꣢श꣣ क्षि꣡पो꣢ हि꣣न्व꣡न्ति꣢ स꣣प्त꣢ धी꣣त꣡यः꣢ । अ꣢नु꣣ वि꣡प्रा꣢ अमादिषुः ॥११८१॥

स्वर सहित पद पाठ

मृ꣣ज꣡न्ति꣢ । त्वा꣣ । द꣡श꣢꣯ । क्षि꣡पः꣢꣯ । हि꣣न्व꣡न्ति꣢ । स꣣प्त꣢ । धी꣣त꣡यः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । वि꣡प्राः꣢꣯ । वि । प्राः꣣ । अमादिषुः ॥११८१॥


स्वर रहित मन्त्र

मृजन्ति त्वा दश क्षिपो हिन्वन्ति सप्त धीतयः । अनु विप्रा अमादिषुः ॥११८१॥


स्वर रहित पद पाठ

मृजन्ति । त्वा । दश । क्षिपः । हिन्वन्ति । सप्त । धीतयः । अनु । विप्राः । वि । प्राः । अमादिषुः ॥११८१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1181
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
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पदार्थ -
(त्वा) हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! तुझे (दश क्षिपः) विषयों की ओर फेंकने वाली इन्द्रिय शक्तियाँ वृत्तियाँ (मृजन्ति) प्राप्त हो रही हैं*22 विषयों में न जाकर तेरी ओर प्रवृत्त हो रही हैं (सप्त-धीतयः हिन्वन्ति) सात प्रज्ञाएँ*23 योग भूमियाँ—हेय दुःख समझ लिया, क्षीण हो गए हेय हेतु, ज्ञान का उपाय विवेक दर्शन सम्पादन कर लिया, सत्त्व आदि गुणों के अधिकार से बुद्धि निवृत्त हो गई, गुण अपने कारण में अस्त हो गए, फिर इनकी उत्पत्ति नहीं प्रयोजन के अभाव से, तुझे आप्त हो रही हैं—समन्तरूप से प्राप्त हो रही हैं*24—तेरे से चरित हो रही हैं, इस प्रकार (अनु-‘त्वाम्-अनु’ विप्राः-अमादिषुः) तुझे लक्ष्य कर उपासक ब्राह्मण४ हर्षित आनन्दित हो जाते हैं॥४॥

विशेष - <br>

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