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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1407
ऋषिः - सुतंभर आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
त्व꣡म꣢ग्ने स꣣प्र꣡था꣢ असि꣣ जु꣢ष्टो꣣ हो꣢ता꣣ व꣡रे꣢ण्यः । त्व꣡या꣢ य꣣ज्ञं꣡ वि त꣢꣯न्वते ॥१४०७॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ꣣ग्ने । सप्र꣡थाः꣢ । स꣣ । प्र꣡थाः꣢꣯ । अ꣣सि । जु꣡ष्टः꣢꣯ । हो꣡ता꣢꣯ । व꣡रे꣢꣯ण्यः । त्व꣡या꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣢म् । वि । त꣣न्वते ॥१४०७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने सप्रथा असि जुष्टो होता वरेण्यः । त्वया यज्ञं वि तन्वते ॥१४०७॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । अग्ने । सप्रथाः । स । प्रथाः । असि । जुष्टः । होता । वरेण्यः । त्वया । यज्ञम् । वि । तन्वते ॥१४०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1407
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक अग्रणायक परमात्मन्! तू (जुष्टः) हम उपासकों का प्रिय—प्रीतिपात्र (होता) अपनानेवाला (वरेण्यः) वरण करने योग्य (सप्रथाः) सर्वतो महान्१ (असि) है (त्वया यज्ञं वितन्वते) तुझे लक्ष्य कर अध्यात्मयज्ञ को उपासकजन विस्तृत करते हैं—समृद्ध करते हैं॥३॥
विशेष - <br>
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