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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1427
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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अ꣣भि꣡ वस्त्रा꣢꣯ सुवस꣣ना꣡न्य꣢र्षा꣣भि꣢ धे꣣नूः꣢ सु꣣दु꣡घाः꣢ पू꣣य꣡मा꣢नः । अ꣣भि꣢ च꣣न्द्रा꣡ भर्त꣢꣯वे नो꣣ हि꣡र꣢ण्या꣣भ्य꣡श्वा꣢न्र꣣थि꣡नो꣢ देव सोम ॥१४२७॥

स्वर सहित पद पाठ

अभि꣢ । व꣡स्त्रा꣢꣯ । सु꣣वसना꣡नि꣢ । सु꣣ । वसना꣡नि꣢ । अ꣣र्ष । अभि꣢ । धे꣣नूः꣢ । सु꣣दु꣡घाः꣢ । सु꣣ । दु꣡घाः꣢꣯ । पू꣣य꣡मा꣢नः । अ꣡भि꣢ । च꣣न्द्रा꣢ । भ꣡र्त꣢꣯वे । नः꣣ । हि꣡र꣢꣯ण्या । अ꣣भि꣢ । अ꣡श्वा꣢꣯न् । र꣣थि꣡नः꣢ । दे꣣व । सोम ॥१४२७॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि वस्त्रा सुवसनान्यर्षाभि धेनूः सुदुघाः पूयमानः । अभि चन्द्रा भर्तवे नो हिरण्याभ्यश्वान्रथिनो देव सोम ॥१४२७॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । वस्त्रा । सुवसनानि । सु । वसनानि । अर्ष । अभि । धेनूः । सुदुघाः । सु । दुघाः । पूयमानः । अभि । चन्द्रा । भर्तवे । नः । हिरण्या । अभि । अश्वान् । रथिनः । देव । सोम ॥१४२७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1427
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(देव सोम) हे द्योतमान सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (पूयमानः) अध्येष्यमाण—प्रेरित—आकर्षित हुआ (नः-भर्तवे) हमारे भरण करने के लिये (सुवसनानि वस्त्रा-अभि-अर्ष) जो शोभनवसन आच्छादन योग्य वस्त्रों को अभिगत हो—वस्त्रों को व्यसनरूप में न देवें—वर्तें किन्तु तेरा प्रसाद है ऐसी दृष्टि से वर्तें (सुदुघाः-धेनूः-अभि) उत्तम दूहन योग्य गौओं में अभिगत—प्राप्त हो उन्हें भी तेरा उपहार समझें (चन्द्रा हिरण्या-अभि) आह्लादकारक स्वर्ण आदि धनों को भी अभिप्राप्त हो—उन्हें केवल भूषामात्र न समझें किन्तु उनमें तेरी झाँकी प्रतीत करें (रथिनः अश्वान्-अभि) रथवान् घोड़ों को भी तेरा प्रसाद मानें॥२॥

विशेष - <br>

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