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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 147
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣢꣫त्राह꣣ गो꣡र꣢मन्वत꣣ ना꣢म꣣ त्व꣡ष्टु꣢रपी꣣꣬च्य꣢꣯म् । इ꣣त्था꣢ च꣣न्द्र꣡म꣢सो गृ꣣हे꣢ ॥१४७॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡त्र꣢꣯ । अ꣡ह꣢꣯ । गोः । अ꣣मन्वत । ना꣡म꣢꣯ । त्व꣡ष्टुः꣢꣯ । अ꣣पीच्य꣢꣯म् । इ꣣त्था꣢ । च꣣न्द्र꣡म꣢सः । च꣣न्द्र꣢ । म꣣सः । गृहे꣢ ॥१४७॥


स्वर रहित मन्त्र

अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम् । इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥१४७॥


स्वर रहित पद पाठ

अत्र । अह । गोः । अमन्वत । नाम । त्वष्टुः । अपीच्यम् । इत्था । चन्द्रमसः । चन्द्र । मसः । गृहे ॥१४७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 147
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(अत्र त्वष्टुः) “अत्र त्वष्टरि” दिन के समय इस प्रकाशमान आदित्य में “त्वष्टा-आदित्यः” [निरु॰ १२.११] (ह) अवश्य (गोः) सर्वत्र गतिशील व्यापक परमात्मा के (अपीच्यं नाम) अपिहित—अन्तर्हित नमस्कार योग्य स्वरूप को (अमन्वत) उपासक मानते हैं—जानते हैं—अनुभव करते हैं, जैसे अन्यत्र वेद में कहा है—“हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। याऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म” [यजु॰ ४०.१७] (इत्था) ‘इत्थं’ इसी प्रकार (चन्द्रमसः-गृहे) रात्रि के समय चन्द्रमा के मण्डल—नक्षत्रों सहित चन्द्रमण्डल में भी उस व्यापक परमात्मा के स्वरूप में अपिहित—अन्तर्हित जन मानते हैं।

भावार्थ - चाहे दिन में प्रकाशात्मक पिण्ड सूर्य हो या रात्रि में प्रकाशात्मक चन्द्रमादि नक्षत्रगण हो सबमें उस व्यापक परमात्मा के स्वरूप को उपासक मानते हैं—जानते हैं—“तस्य भासा सर्वमिदं विभाति तमेव भान्तमनुभाति सर्वम्” [कठो॰ ५.१५] संसार के किसी भी तापक या शीतल प्रकाश वाले पदार्थ को देखकर उपासकजन उस-उस पदार्थ को उपास्य इष्टदेव नहीं मानते किन्तु उसके अन्दर चेतन इष्टदेव परमात्मा को मानते हैं॥३॥

विशेष - ऋषिः—गोतमः (अत्यन्त प्रगतिशील ज्ञानी)॥<br>

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