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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1615
ऋषिः - अत्रिर्भौमः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
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वि꣣पश्चि꣢ते꣣ प꣡व꣢मानाय गायत म꣣ही꣡ न धारात्यन्धो꣢꣯ अर्षति । अ꣢हि꣣र्न꣢ जू꣣र्णा꣡मति꣢꣯ सर्पति꣣ त्व꣢च꣣म꣢त्यो꣣ न꣡ क्रीड꣢꣯न्नसर꣣द्वृ꣢षा꣣ ह꣡रिः꣢ ॥१६१५॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣣पश्चि꣡ते꣢ । वि꣣पः । चि꣡ते꣢꣯ । प꣡व꣢꣯मानाय । गा꣣यत । मही꣢ । न । धा꣡रा꣢꣯ । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣡न्धः꣢꣯ । अ꣣र्षति । अ꣡हिः꣢꣯ । न । जू꣣र्णा꣢म् । अ꣡ति꣢꣯ । स꣣र्पति । त्व꣡च꣢꣯म् । अ꣡त्यः꣢꣯ । न । क्री꣡ड꣢꣯न् । अ꣣सरत् । वृ꣡षा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ ॥१६१५॥


स्वर रहित मन्त्र

विपश्चिते पवमानाय गायत मही न धारात्यन्धो अर्षति । अहिर्न जूर्णामति सर्पति त्वचमत्यो न क्रीडन्नसरद्वृषा हरिः ॥१६१५॥


स्वर रहित पद पाठ

विपश्चिते । विपः । चिते । पवमानाय । गायत । मही । न । धारा । अति । अन्धः । अर्षति । अहिः । न । जूर्णाम् । अति । सर्पति । त्वचम् । अत्यः । न । क्रीडन् । असरत् । वृषा । हरिः ॥१६१५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1615
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(विपश्चिते पवमानाय गायत) उपासकजनो! सर्वज्ञ आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले परमात्मा का स्तुतिगान करो (अन्धः-मही न धारा-अति-अर्षति) जो अध्यानीय९ ध्यान में आया हुआ वृष्टिधारा के समान अपनी आनन्दधारारूप में बरसता है (अहिः-न जुर्णां त्वचम्-अति-सर्पति) सर्प जैसे जीर्ण त्वचा को छोड़ देता है ऐसे उपासक की पुरातन वासना को अति सर्पित करता है—निकाल देता है (वृषा हरिः) सुखवर्षक दुःखहर्ता परमात्मा (अत्यः-न क्रीडन्-असरत्) घोड़ा जैसे१० क्रीड़ा करता हुआ अच्छी गति करता हुआ आगे बढ़ता है ऐसे परमात्मा स्वभावतः रमण करता हुआ उपासक के अन्दर प्राप्त होता है॥२॥

विशेष - <br>

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