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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1656
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
नी꣢꣯व शी꣣र्षा꣡णि꣢ मृढ्वं꣣ म꣢ध्य꣣ आ꣡प꣢स्य तिष्ठति । शृ꣡ङ्गे꣢भिर्द꣣श꣡भि꣢र्दि꣣श꣢न् ॥१६५६
स्वर सहित पद पाठनि꣢ । इ꣣व । शीर्षा꣡णि꣢ । मृ꣣ढ्वम् । म꣡ध्ये꣢꣯ । आ꣡प꣢꣯स्य । ति꣣ष्ठति । शृ꣡ङ्गे꣢꣯भिः । द꣣श꣡भिः꣢ । दि꣣श꣢न् ॥१६५६॥
स्वर रहित मन्त्र
नीव शीर्षाणि मृढ्वं मध्य आपस्य तिष्ठति । शृङ्गेभिर्दशभिर्दिशन् ॥१६५६
स्वर रहित पद पाठ
नि । इव । शीर्षाणि । मृढ्वम् । मध्ये । आपस्य । तिष्ठति । शृङ्गेभिः । दशभिः । दिशन् ॥१६५६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1656
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(आपस्य मध्ये तिष्ठति) वह परमात्मा आप्त-प्राप्त किया जाता है जहाँ—उस हृदय देश के४ मध्य—अन्दर रहता है (दशभिः शृङ्गेभिः-दिशन्) दृष्टार्थ५ देख लिये—जान लिये अर्थ—पदार्थमात्र जिनके द्वारा ऐसे विविध ज्ञानप्रकाशों द्वारा६ उपासक को ज्ञान उपदेश एवं अध्यात्म मार्ग का निर्देश करता हुआ रहता है (शीर्षाणि नि मृढ्वम्-इव) हे उपासको! तुम उस परमात्मा के उपदेशों से अपने को अवश्य७ अलंकृत करो—संस्कृत करो॥३॥
विशेष - <br>
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