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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1662
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣡रं꣢ त इन्द्र कु꣣क्ष꣢ये꣣ सो꣡मो꣢ भवतु वृत्रहन् । अ꣢रं꣣ धा꣡म꣢भ्य꣣ इ꣡न्द꣢वः ॥१६६२॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡र꣢꣯म् । ते꣣ । इन्द्र । कु꣡क्षये꣢ । सो꣡मः꣢꣯ । भ꣣वतु । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अ꣡र꣢꣯म् । धा꣡म꣢꣯भ्यः । इ꣡न्द꣢꣯वः ॥१६६२॥


स्वर रहित मन्त्र

अरं त इन्द्र कुक्षये सोमो भवतु वृत्रहन् । अरं धामभ्य इन्दवः ॥१६६२॥


स्वर रहित पद पाठ

अरम् । ते । इन्द्र । कुक्षये । सोमः । भवतु । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अरम् । धामभ्यः । इन्दवः ॥१६६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1662
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(वृत्रहन्-इन्द्र) हे पापनाशक ऐश्वर्यवन्६ परमात्मन्! (ते-कुक्षये) तेरे कोख-जठर-मध्य में समाने के लिये उपासक का (सोमः) उपासनारस (अरं भवतु) ‘अलम्’ पर्याप्त या बहुत होवे, उपासक अपनी अल्प शक्ति के अनुसार उपासनारस प्रस्तुत कर सकेगा, तू अनन्त है अतः तेरा कुक्षि या जठर-मध्य अवकाश भरा नहीं जा सकता, एवं (इन्दवः) निरन्तर असंख्य धाराप्रवाह से आर्द्र उपासनारस (धामभ्यः-अरम्) तेरे व्यापनशील अङ्गों७ उपासक के अन्दर वर्तमान तेरे कृपांशों के लिये बहुत या पर्याप्त हो॥३॥

विशेष - <br>

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