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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1709
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
य꣢ इ꣣दं꣡ प्र꣢तिपप्र꣣थे꣢ य꣣ज्ञ꣢स्य꣣꣬ स्व꣢꣯रुत्ति꣣र꣢न् । ऋ꣣तू꣡नुत्सृ꣢꣯जते व꣣शी꣢ ॥१७०९
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । इ꣡द꣢म् । प्र꣣तिपप्रथे꣢ । प्र꣣ति । पप्रथे꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स्वः꣡ । उ꣣त्तिर꣢न् । उ꣣त् । तिर꣢न् । ऋ꣣तू꣢न् । उत् । सृ꣣जते । वशी꣢ ॥१७०९॥
स्वर रहित मन्त्र
य इदं प्रतिपप्रथे यज्ञस्य स्वरुत्तिरन् । ऋतूनुत्सृजते वशी ॥१७०९
स्वर रहित पद पाठ
यः । इदम् । प्रतिपप्रथे । प्रति । पप्रथे । यज्ञस्य । स्वः । उत्तिरन् । उत् । तिरन् । ऋतून् । उत् । सृजते । वशी ॥१७०९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1709
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(यज्ञस्य स्वः-उत्तिरन्) उपासकों के अध्यात्मयज्ञ के सुखफल को देने के हेतु (यः) जो विश्वनायक परमात्मा (इदं प्रतिपप्रथे) इस जगत् को पुनः पुनः प्रथित करता है—मनुष्यों के कर्म करणार्थ (वशी ऋतून्-उत्सृजते) वह वशकर्ता परमात्मा जगत् में ऋतुओं को उत्सर्जित करता है—उत्पन्न करता है पुनः मोक्ष की ओर भी ले जाता है॥२॥
विशेष - <br>
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