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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1711
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣ग्निः꣢ प्र꣣त्ने꣢न꣣ ज꣡न्म꣢ना꣣ शु꣡म्भा꣢नस्त꣣न्वा३ꣳ स्वा꣢म् । क꣣वि꣡र्विप्रे꣢꣯ण वावृधे ॥१७११॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । प्र꣣त्ने꣡न꣢ । ज꣡न्म꣢꣯ना । शु꣡म्भा꣢꣯नः । त꣣न्व꣢म् । स्वाम् । क꣣विः꣢ । वि꣡प्रे꣢꣯ण । वि । प्रे꣣ण । वावृधे ॥१७११॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्निः प्रत्नेन जन्मना शुम्भानस्तन्वा३ꣳ स्वाम् । कविर्विप्रेण वावृधे ॥१७११॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्निः । प्रत्नेन । जन्मना । शुम्भानः । तन्वम् । स्वाम् । कविः । विप्रेण । वि । प्रेण । वावृधे ॥१७११॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1711
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(कविः-अग्निः) सर्वज्ञ अग्रणायक परमात्मा (प्रत्नेन जन्मना) पुरातनशाश्वतिक—स्वाभाविक अभौतिक प्रादुर्भाव से या पुरातन स्वाभाविक कर्म से१ या दिव—मोक्षधाम वाले२ अमृतस्वरूप से (स्वां तन्वं शुम्भानः) अपनी तनुरूप उपासक आत्मा को३ शोभित करने वाला (विप्रेण वावृधे) मेधावी उपासक द्वारा स्तुत हुआ—स्तुति में लाया हुआ बढ़ता है—महत्त्व को प्राप्त होता है—उपासक के अन्दर साक्षात् होता है॥१॥

विशेष - ऋषिः—आङ्गिरसो विरूपः (अङ्गों के प्रेरण नियन्त्रण में कुशल विशेषरूप में परमात्मा को निरूपित करने वाला)॥ देवता—अग्निः (अग्रणायक परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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