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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1741
ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः
देवता - उषाः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
या꣡ सु꣢नी꣣थे꣡ शौ꣢चद्र꣣थे꣡ व्यौच्छो꣢꣯ दुहितर्दिवः । सा꣡ व्यु꣢च्छ꣣ स꣡ही꣢यसि स꣣त्य꣡श्र꣢वसि वा꣣य्ये꣡ सुजा꣢꣯ते꣣ अ꣡श्व꣢सूनृते ॥१७४१॥
स्वर सहित पद पाठया꣢ । सु꣣नीथे꣢ । सु꣣ । नीथे꣢ । शौ꣣चद्रथे꣢ । शौ꣣चत् । रथे꣢ । व्यौ꣡च्छः꣢꣯ । वि꣣ । औ꣡च्छः꣢꣯ । दु꣣हितः । दिवः । सा꣢ । वि । उच्छ । स꣡ही꣢꣯यसि । स꣣त्य꣡श्र꣢वसि । स꣣त्य꣢ । श्र꣣वसि । वाय्ये꣢ । सु꣡जा꣢꣯ते । सु । जा꣣ते । अ꣡श्व꣢꣯सू꣣नृते । अ꣡श्व꣢꣯ । सू꣣नृते ॥१७४१॥
स्वर रहित मन्त्र
या सुनीथे शौचद्रथे व्यौच्छो दुहितर्दिवः । सा व्युच्छ सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥१७४१॥
स्वर रहित पद पाठ
या । सुनीथे । सु । नीथे । शौचद्रथे । शौचत् । रथे । व्यौच्छः । वि । औच्छः । दुहितः । दिवः । सा । वि । उच्छ । सहीयसि । सत्यश्रवसि । सत्य । श्रवसि । वाय्ये । सुजाते । सु । जाते । अश्वसूनृते । अश्व । सूनृते ॥१७४१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1741
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(या) जो तू परमात्मा की दीप्ति या ज्योति! (सुनीथे) हे अध्यात्ममार्ग में शोभननेत्री—सम्यक् ले जाने वाली१ (शौचद्रथे) प्रकाशमान रमणीय स्वरूप वाली (दिवः-दुहितः) मोक्षधाम की तत्रस्थ आनन्दरस की दूहने वाली (व्यौच्छः तू मुझ उपासक के अन्दर प्रकाशित हो (सा सहीमसि व्युच्छ) वह तू पापों अज्ञानों को अत्यन्त प्रसहन करने दबाने वाली मेरे अन्दर प्रकाशित हो, तथा (सत्यश्रवसि) हे सत्यस्वरूप परमात्मा का श्रवण कराने वाली (वाय्ये) वरणीय (सुजाते) सुप्रसिद्ध (अश्वसुनृते) व्यापक परमात्मा की वाणी जिसमें हो ऐसी परमात्मदीप्ति या परमात्मज्योति मेरे अन्दर प्रकाशित हो॥२॥
विशेष - <br>
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