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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 179
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣡न्द्रो꣢ दधी꣣चो꣢ अ꣣स्थ꣡भि꣢र्वृ꣣त्रा꣡ण्यप्र꣢꣯तिष्कुतः । ज꣣घा꣡न꣢ नव꣣ती꣡र्नव꣢꣯ ॥१७९॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । द꣣धीचः꣢ । अ꣣स्थ꣡भिः꣢ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः । जघा꣡न꣢ । न꣣वतीः꣢ । न꣡व꣢꣯ ॥१७९॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः । जघान नवतीर्नव ॥१७९॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रः । दधीचः । अस्थभिः । वृत्राणि । अप्रतिष्कुतः । अ । प्रतिष्कुतः । जघान । नवतीः । नव ॥१७९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 179
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
(अप्रतिष्कुतः) ‘कुतोऽपि गुणकर्मस्वभावात्-अप्रतिः-न प्रतिनि-धिर्यस्य सः-अप्रतिष्कुतः’ गुणकर्म स्वभाव से प्रतिनिधिरहित तथा न प्रति-आप्रवणशील—अपने गुणकर्म स्वभाव से न विचलित होनेवाला—एकरस “स्कुञ् आप्रवणे” [क्र्यादि॰] एवं न प्रतिकृत—प्रतिकार से रहित “मध्ये सकारागमश्छान्दसः” और किसी से न प्रतिहिंसित “अप्रतिष्कुतः-अप्रतिष्कृतः” [निरु॰ ६.१६] (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (दधीचः) दधि-ध्यान—परमात्म-ध्यान को प्राप्त ध्यानी के “दध्यङ् प्रत्यक्तो ध्यानम्” [निरु॰ १२.३६] (वृत्राणि) पापों—पापविचारों को “पाप्मा वै वृत्रः” [श॰ ११.१.५.७] (अस्थभिः) अस्थियों उपतापित करने वाली “असु उपतापे” [कण्ड्वादि॰] समिधाओं—समिद्ध ज्ञानप्रकाश से प्रदीप्त स्वशक्तियों से “अस्थीनि समिधः” [श॰ ९.२.६.४६] (जघान) नष्ट कर देता है तथा (नव नवतीः) नौ—पाँच ज्ञानेन्द्रियों मन बुद्धि चित्त अहङ्कार वाली गतिप्रवृत्तियों वासनाओं को भी “नवते गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] नष्ट कर देता है।

भावार्थ - किसी भी ज्ञान दया न्याय शक्ति आदि गुण, सृष्टिरचना, जीवों के कर्मफलादि कर्म सर्वगत, विभु आदि स्वभाव से प्रतिनिधि—समकक्ष से रहित तथा स्वगुणादि से अविचलित एकरस एवं प्रतिकार न कर सकने योग्य न प्रतिकार का इच्छुक और अन्य से अहिंसित होता हुआ अपने ध्यान में अपनी उपासना में रत हुए ध्यानी उपासक के पापों स्वविषयक पापों अन्य के प्रति पापों को नष्ट किया करता है अपितु वह ध्यानी के नौ प्रकार की वासनाओं को भी नष्ट कर देता है जो कि पाँच ज्ञानेन्द्रियों में गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द ग्रहण वासनाएँ हैं एवं मन बुद्धि चित्त अहङ्कार के अर्थात् मन के संकल्प बुद्धि की तर्कनाएँ, चित्त के स्मरण, अहङ्कार की ममताएँ संसार को लक्ष्य कस्के होती हैं उन्हें भी नष्ट करता है निरुद्ध कर देता है॥५॥

विशेष - ऋषिः—गोतमः (उपासना में अत्यन्त गतिशील ध्यानी)॥<br>

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