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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 181
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣡ तू꣢꣯ न इन्द्र वृत्रहन्न꣣स्मा꣢क꣣म꣢र्ध꣣मा꣡ ग꣢हि । म꣣हा꣢न्म꣣ही꣡भि꣢रू꣣ति꣡भिः꣢ ॥१८१॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । तु । नः꣣ । इन्द्र । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अस्मा꣡क꣢म् । अ꣡र्ध꣢꣯म् । आ । ग꣣हि । महा꣢न् । म꣣ही꣡भिः꣢ । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ ॥१८१॥


स्वर रहित मन्त्र

आ तू न इन्द्र वृत्रहन्नस्माकमर्धमा गहि । महान्महीभिरूतिभिः ॥१८१॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । तु । नः । इन्द्र । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अस्माकम् । अर्धम् । आ । गहि । महान् । महीभिः । ऊतिभिः ॥१८१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 181
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
(वृत्रहन्-इन्द्र) हे पापविनाशक ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (महान्) महान् है—स्वरूपतः और उपकारक गुणों से महान् है, अतः (अस्माकम्-अर्द्धम्) हमारे पास या हमारे घर (तु-आ) शीघ्र आ, परन्तु साधारणरूप से नहीं किन्तु (महीभिः-ऊतिभिः-आगहि) महती—रक्षाकरणशक्तियों के साथ आ जा।

भावार्थ - पापनाशक परमात्मन्! हमारे पास या हमारे स्थान हृदयगृह में आ, हम जानते हैं तू आमन्त्रित करने पर आता है परन्तु हमारे प्रेम आग्रह मात्र से या साधारणरूप में ही नहीं किन्तु अपनी रक्षा शक्तियों से आया करता है—तब हम निर्भय रहते हैं॥७॥

विशेष - ऋषिः—वामदेवः (वननीय धारणीय परमात्मदेव जिसका है ऐसा उपासक)॥<br>

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