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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 188
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣या꣢ धि꣣या꣡ च꣢ गव्य꣣या꣡ पु꣢꣯रुणामन्पुरुष्टुत । य꣡त्सोमे꣢꣯सोम꣣ आ꣡भु꣢वः ॥१८८॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣या꣢ । धि꣣या꣢ । च꣣ । गव्यया꣢ । पु꣡रु꣢꣯णामन् । पु꣡रु꣢꣯ । ना꣣मन् । पुरुष्टुत । पुरु । स्तुत । य꣢त् । सो꣡मे꣢꣯सोमे । सो꣡मे꣢꣯ । सो꣣मे । आ꣡भु꣢꣯वः । आ꣣ । अ꣡भु꣢꣯वः ॥१८८॥


स्वर रहित मन्त्र

अया धिया च गव्यया पुरुणामन्पुरुष्टुत । यत्सोमेसोम आभुवः ॥१८८॥


स्वर रहित पद पाठ

अया । धिया । च । गव्यया । पुरुणामन् । पुरु । नामन् । पुरुष्टुत । पुरु । स्तुत । यत् । सोमेसोमे । सोमे । सोमे । आभुवः । आ । अभुवः ॥१८८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 188
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
(पुरुणामन्) हे बहुत नामों वाले—बहुत नामों से पुकारे जाने वाले जैसे अन्यत्र वेद में कहा है “अग्निं मित्रं वरुणमाहुः” [ऋ॰ १.१६४.४६] (पुरुष्टुत) बहुत गुण प्रकारों से स्तुत्य उपासनीय ऐश्वर्यवन् परमात्मन् तू (अनया गव्यया धिया च) इस स्तुति की इच्छारूप बुद्धि—धारणा से (सोमे-सोमे) निरन्तर निष्पादित उपासनारस में “वीप्सायां द्विरुक्तिः” (यत्-आभुवः) जब कभी भी तू मेरे अन्दर आभूत हो जाता—साक्षात् हो जाता है—हो जावेगा यह तो विश्वास है।

भावार्थ - हे बहुत नामों वाले तथा बहुत गुणयोग से स्तुति करने योग्य परमात्मन्! इस जिस किसी भी नाम विधि या जिस किसी भी गुण स्तुति की इच्छा वाली धारणा भावना से निरन्तर उपासनारस निष्पादित करने पर तू जब कभी—कभी न कभी—कभी तो मेरे अन्दर साक्षात् होता है—होगा ही यह निश्चय है तेरा सत्य-स्वभाव है॥४॥

विशेष - ऋषिः—श्रुतकक्षः (सुन लिया अध्यात्मकक्ष जिसने ऐसा अध्यात्म ज्ञानी जन)॥<br>

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