Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 215
ऋषिः - श्रुतकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2

अ꣡त꣢श्चिदिन्द्र न꣣ उ꣡पा या꣢꣯हि श꣣त꣡वा꣢जया । इ꣣षा꣢ स꣣ह꣡स्र꣢वाजया ॥२१५॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡तः꣢꣯ । चि꣣त् । इन्द्र । नः । उ꣡प꣢꣯ । आ । या꣣हि । शत꣡वा꣢जया । श꣣त꣢ । वा꣣जया । इषा꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢वाजया । स꣣ह꣡स्र꣢ । वा꣣जया । ॥२१५॥


स्वर रहित मन्त्र

अतश्चिदिन्द्र न उपा याहि शतवाजया । इषा सहस्रवाजया ॥२१५॥


स्वर रहित पद पाठ

अतः । चित् । इन्द्र । नः । उप । आ । याहि । शतवाजया । शत । वाजया । इषा । सहस्रवाजया । सहस्र । वाजया । ॥२१५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 215
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
Acknowledgment

पदार्थ -
(इन्द्र) हे परमात्मन्! तू (अतः-चित्) इन्हीं हमारे आर्द्र उपासनारसों से हम पर कृपालु होकर (शतवाजया सहस्रवाजया) शतगुणित अमृतान्न भोग वाली सहस्रगुणित अमृतान्न भोग वाली—(इषा) अपनी गति-प्रवृत्ति क्रिया से (नः-उपायाहि) हमारे पास आ—प्राप्त हो।

भावार्थ - परमात्मन्! तू इन्हीं आर्द्र उपासनारसों से शतगुणित अमृत भोग वाली अपितु सहस्रगुणित भोग वाली अपनी प्रशस्त गति से हमारे पास आ—आता है तेरे प्रति हमारा उपासनारस निष्फल नहीं जाता है किन्तु शतगुणित अपितु सहस्रगुणित फल देने वाला हो जाता है॥२॥

विशेष - ऋषिः—श्रुतकक्षः (सुन लिया अध्यात्मकक्ष जिसने)॥<br>

इस भाष्य को एडिट करें
Top