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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 218
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ऋ꣣जुनीती꣢ नो꣣ व꣡रु꣢णो मि꣣त्रो꣡ न꣢यति वि꣣द्वा꣢न् । अ꣣र्यमा꣢ दे꣣वैः꣢ स꣣जो꣡षाः꣢ ॥२१८॥

स्वर सहित पद पाठ

ऋ꣣जुनी꣢ती । ऋ꣣जु । नीती꣢ । नः꣣ । व꣡रु꣢꣯णः । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । न꣣यति । विद्वा꣢न् । अ꣣र्यमा꣢ । दे꣣वैः꣢ । स꣣जो꣡षाः । स꣣ । जो꣡षाः꣢꣯ ॥२१८॥


स्वर रहित मन्त्र

ऋजुनीती नो वरुणो मित्रो नयति विद्वान् । अर्यमा देवैः सजोषाः ॥२१८॥


स्वर रहित पद पाठ

ऋजुनीती । ऋजु । नीती । नः । वरुणः । मित्रः । मि । त्रः । नयति । विद्वान् । अर्यमा । देवैः । सजोषाः । स । जोषाः ॥२१८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 218
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
(वरुणः) वरणीय शरणप्रद (मित्रः) स्नेही सदा साथ रहने वाला (अर्यमा) आनन्ददाता स्वामी (विद्वान्) हमारे सब कर्मों को जानता हुआ (देवैः सजोषाः) अपने दिव्यगुणों के साथ समानरूप से सेवित होने वाला (नः) हमें (ऋजुनीती) सरल नयन क्रिया से (नयति) ले जाता है।

भावार्थ - परमात्मा हमारा सच्चा नेता हूँ, जो हमारा वरणीय, शरणदाता, स्नेही, साथी, आनन्ददाता स्वामी है, वह अपने समस्त दिव्य गुणों के साथ युक्त हुआ हमारे अन्तर्भावों को जानता हुआ सरल नयन क्रिया से ले जाता है।

विशेष - ऋषिः—गोतमः (वाणी—स्तुति को चाहने वाला परमात्मा)॥<br>

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