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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 23
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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अ꣡ग्ने꣢ मृ꣣ड꣢ म꣣हा꣢ꣳ अ꣣स्य꣢य꣣ आ꣡ दे꣢व꣣युं꣡ जन꣢꣯म् । इ꣣ये꣡थ꣢ ब꣣र्हि꣢रा꣣स꣡द꣢म् ॥२३॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । मृ꣣ड꣢ । म꣣हा꣢न् । अ꣣सि । अ꣡यः꣢꣯ । आ । दे꣣वयु꣢म् । ज꣡न꣢꣯म् । इ꣣ये꣡थ꣢ । ब꣣र्हिः꣢ । आ꣣स꣡द꣢म् । आ꣣ । स꣡द꣢म् ॥२३॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्ने मृड महाꣳ अस्यय आ देवयुं जनम् । इयेथ बर्हिरासदम् ॥२३॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्ने । मृड । महान् । असि । अयः । आ । देवयुम् । जनम् । इयेथ । बर्हिः । आसदम् । आ । सदम् ॥२३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 23
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

पदार्थ—(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (महान्-अयः-असि) महान् प्रगतिशील है (देवयुम् जनं मृड) तुझ इष्टदेव के चाहने वाले मुझ जन को सुखी बना “मृड सुखने” [तुदादि॰] अतः (आसदं बर्हिः-आ-इयेथ) भली-भाँति बैठने योग्य मेरे हृदयावकाशरूप सदन में समन्त रूप से विराजमान हो।

भावार्थ -

परमात्मन्! सम्बन्धीजन और मित्रगण सुख देने वाले हैं, परन्तु सदा नहीं और न सच्चा सुख दे सकते हैं, जड़ वस्तुओं का सुख तो क्षणिक होता है उसमें भी “भोगे रोगभयं वियोगे शोकभयम्” उनके भोग में रोग भय और वियोग में शोक भय है। सच्चा सुख और स्थायी सुख तू ही अपने चाहने वाले जन को देता है जो तुझे चाहता है, तू उसे चाहता है। अन्य सुखदाताओं का समागम बाहिर बाहिर रहता है तुझ सुखदाता का समागम मेरे अन्दर अभिन्न अछिन्न होता है। अतः मेरे अन्दर आ, अपना सर्वात्मना सुख पहुँचा॥३॥

विशेष -

ऋषिः—वामदेवः (वननीय देव परमात्मा जिसका है ऐसा उपासक)॥<br>

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