Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 233
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
अ꣣भि꣡ त्वा꣢ शूर नोनु꣣मो꣡ऽदु꣢ग्धा इव धे꣣न꣡वः꣢ । ई꣡शा꣢नम꣣स्य꣡ जग꣢꣯तः स्व꣣र्दृ꣢श꣣मी꣡शा꣢नमिन्द्र त꣣स्थु꣡षः꣢ ॥२३३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । त्वा꣣ । शूर । नोनुमः । अ꣡दु꣢ग्धाः । अ । दु꣣ग्धाः । इव । धेन꣡वः꣢ । ई꣡शा꣢꣯नम् । अ꣣स्य꣢ । ज꣡ग꣢꣯तः । स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् । स्वः꣣ । दृ꣡श꣢꣯म् । ई꣡शा꣢꣯नम् । इ꣣न्द्र । तस्थु꣡षः꣢ ॥२३३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्वा शूर नोनुमोऽदुग्धा इव धेनवः । ईशानमस्य जगतः स्वर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थुषः ॥२३३॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । त्वा । शूर । नोनुमः । अदुग्धाः । अ । दुग्धाः । इव । धेनवः । ईशानम् । अस्य । जगतः । स्वर्दृशम् । स्वः । दृशम् । ईशानम् । इन्द्र । तस्थुषः ॥२३३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 233
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
Acknowledgment
पदार्थ -
(शूर) हे सर्वगत “शूरः शवतेर्गतिकर्मणः” [निरु॰ ४.१३] (इन्द्र) परमात्मन्! (अस्य जगतः-ईशानम्) इस जङ्गम के स्वामी (तस्थुषः-ईशानम्) स्थावर के स्वामी—(स्वर्दृशं-त्वा-अभि) अमृत सुख के दिखाने वाले तुझे लक्ष्य कर “स्वरिति सामभ्योऽक्षरत् स्वः स्वर्गलोकोऽभवत्” [ष॰ १.५] “यदा वै स्वर्गत्याथामृतो भवति” [जैमि॰ १.३३२] “स्वर्देवा आगामामृता अभूम” [मै॰ १.११.३] (नोनुमः) पुनः-पुनः नमते हैं अपने को समर्पित करते हैं (अदुग्धाः-धेनवः-इव) जैसे विना दुही हुई—दूध भरी गौएं स्वामी के प्रति दूध देने को नमी जाती है ऐसे हम उपासक अपने उपासनारस को तुझ अपने स्वामी के प्रति अर्पित करने को नमे हुए हैं अथवा जैसे विना दुही हुई गायों के दूध दूहने के लिए दूध के इच्छुक जन नमन हो जाते हैं ऐसे तेरे अमृत सुख के इच्छुक हम आपकी ओर नमते जाते हैं।
भावार्थ - हे सर्वगत परमात्मन्! तुझ स्थावर जङ्गम के स्वामी तथा स्वः—मोक्ष के अमृतसुख दिखाने भुगाने वाले स्वामी की ओर दोहने योग्य गौएं जैसे स्वामी की ओर नमी जाती हैं ऐसे हम उपासनारस के समर्पणार्थ पुनः पुनः नमते हैं या जैसे दूध भरी गायों के प्रति दूध प्राप्त करने को जन गायों के प्रति नमते जाते हैं ऐसे तुझ अमृत—सुखपूर्ण के प्रति अमृत सुख पाने के लिए हम उपासक झुके जाते हैं॥१॥
विशेष - ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसनेवाला उपासक)॥ देवताः—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—बृहती॥<br>
इस भाष्य को एडिट करें