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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 267
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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श्रा꣡य꣢न्त इव꣣ सू꣢र्यं꣣ वि꣡श्वेदिन्द्र꣢꣯स्य भक्षत । व꣡सू꣢नि जा꣣तो꣡ जनि꣢꣯मा꣣न्यो꣡ज꣢सा꣣ प्र꣡ति꣢ भा꣣गं꣡ न दी꣢꣯धिमः ॥२६७॥

स्वर सहित पद पाठ

श्रा꣡य꣢꣯न्तः । इ꣣व । सू꣡र्य꣢꣯म् । वि꣡श्वा꣢꣯ । इत् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । भ꣣क्षत । व꣡सू꣢꣯नि । जा꣣तः꣢ । ज꣡नि꣢꣯मानि । ओ꣡ज꣢꣯सा । प्र꣡ति꣢꣯ । भा꣣ग꣢म् । न । दी꣣धिमः ॥२६७॥


स्वर रहित मन्त्र

श्रायन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत । वसूनि जातो जनिमान्योजसा प्रति भागं न दीधिमः ॥२६७॥


स्वर रहित पद पाठ

श्रायन्तः । इव । सूर्यम् । विश्वा । इत् । इन्द्रस्य । भक्षत । वसूनि । जातः । जनिमानि । ओजसा । प्रति । भागम् । न । दीधिमः ॥२६७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 267
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(सूर्यम्-इव श्रायन्त) “लुप्तोपमानोपमेयालङ्कारः” रश्मियाँ—किरणें सूर्य को आश्रित हुई रहती हैं ऐसे उपासक इन्द्र—परमात्मा को आश्रित हुए रहते हैं (इन्द्रस्य) परमात्मा के (विश्वा जाता जनिमानि-इत्-उ) सब प्रसिद्ध हुए—साक्षात् हुए प्रसिद्ध होने वाले—साक्षात् होने वाले अमृत भोगधनों को भी अवश्य (भक्षत) सेवन करने के इच्छुक हुए—प्राप्त करने के इच्छुक हुए “भज् धातोः सन्नन्तात् ‘अतच्’ औणादिकः कतंरि, अभ्यासाभावो जसो लुक् च छान्दसः” “भक्षत—विभक्षमाणाः” [निरु॰ ६.८] (ओजसा भागं न प्रति दीधिमः) अपने आत्मिक बल तेज—स्वस्वरूप से उस भजनीय इन्द्र—ऐश्वर्यवान् परमात्मा को हम साक्षात् अनुभव करें “ते वयं भागमनुध्यायाम” [निरु॰ ६.८]।

भावार्थ - जैसे किरणें सूर्य को आश्रित हुई रहती हैं ऐसे उपासक मोक्ष में परमात्मा को आश्रित होकर रहते हैं, परमात्मा के समस्त साक्षात् हुए और होने वाले अमृत भोग धनों को भी अवश्य सेवन करने के इच्छुक हुए—प्राप्त करने के इच्छुक हुए अपने आत्मिक बल—तेज—स्वरूप से उस भजनीय परमात्मा को हम उपासक साक्षात् अनुभव करें—कर सकें॥५॥

विशेष - ऋषिः—नृमेधः (नायक मेधा वाला उपासक)॥<br>

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