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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 276
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ब꣢ण्म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि सू꣣र्य ब꣡डा꣢दित्य म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि । म꣣ह꣡स्ते꣢ स꣣तो꣡ म꣢हि꣣मा꣡ प꣢निष्टम म꣣ह्ना꣡ दे꣢व म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि ॥२७६॥
स्वर सहित पद पाठब꣢ट् । म꣣हा꣢न् । अ꣢सि । सूर्य । ब꣢ट् । आ꣣दित्य । आ । दित्य । महा꣢न् । अ꣣सि । महः꣢ । ते꣣ । सतः꣢ । म꣢हिमा꣢ । प꣣निष्टम । मह्ना꣢ । दे꣣व । महा꣢न् । अ꣣सि ॥२७६॥
स्वर रहित मन्त्र
बण्महाꣳ असि सूर्य बडादित्य महाꣳ असि । महस्ते सतो महिमा पनिष्टम मह्ना देव महाꣳ असि ॥२७६॥
स्वर रहित पद पाठ
बट् । महान् । असि । सूर्य । बट् । आदित्य । आ । दित्य । महान् । असि । महः । ते । सतः । महिमा । पनिष्टम । मह्ना । देव । महान् । असि ॥२७६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 276
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(सूर्य) हे सरणशील संसार में विभुगति से चरणशील इन्द्र परमात्मन्! तू (बट्) सत्य—सचमुच “बट् सत्यनाम” [निघं॰ ३.१०] (महान्-असि) महत्त्व—वाला है—सांसारिक महान् वस्तु से भी महान् है (आदित्य) हे अदिति—अखण्ड सुख-सम्पत्ति मुक्ति के स्वामी इन्द्र परमात्मन्! तू (बट्) सचमुच (महान्-असि) महान् है (महः-सतः-ते महिमा) महान् होते हुए का तेरा महत्त्व (अपनिष्टम) हमारे द्वारा स्तुत किया जाता है (देव) हे द्योतन दानादि गुण युक्त इन्द्र परमात्मन्! तू (मह्ना महान्-असि) महत्त्व—गुणमहत्त्व से महान् है।
भावार्थ - हे परमात्मन्! तू संसार में विभुगति से सर्वत्र चरणशील होता हुआ सचमुच महान् है सर्व महान् है, तू अखण्ड सुख-सम्पत्ति मुक्ति का स्वामी होता हुआ सचमुच महान् है नितान्त महान् से महान् है तुझ महान् होते हुए की महिमा प्रसंशित की जाती है, हे द्योतनशील दाता परमात्मन्! तू महत्त्व से महान् है तेरे जैसा सर्वगुणसम्पन्न कोई नहीं है॥४॥
विशेष - ऋषिः—जमदग्निः (जिसमें प्राप्त परमात्माग्नि प्रकाशित है ऐसा उपासक है)॥<br>
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