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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 28
ऋषिः - शुनः शेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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इ꣣म꣢मू꣣ षु꣢꣫ त्वम꣣स्मा꣡क꣢ꣳ स꣣निं꣡ गा꣢य꣣त्रं꣡ नव्या꣢꣯ꣳसम् । अ꣡ग्ने꣢ दे꣣वे꣢षु꣣ प्र꣡ वो꣢चः ॥२८॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣣म꣢म् । उ꣣ । सु꣢ । त्वम् । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । स꣣नि꣢म् । गा꣣यत्र꣢म् । न꣡व्याँ꣢꣯सम् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । दे꣣वे꣡षु꣢ । प्र । वो꣣चः ॥२८॥


स्वर रहित मन्त्र

इममू षु त्वमस्माकꣳ सनिं गायत्रं नव्याꣳसम् । अग्ने देवेषु प्र वोचः ॥२८॥


स्वर रहित पद पाठ

इमम् । उ । सु । त्वम् । अस्माकम् । सनिम् । गायत्रम् । नव्याँसम् । अग्ने । देवेषु । प्र । वोचः ॥२८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 28
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (त्वम्) तू (इमम्-उ) इस ही (गायत्रम्) गायत्री—वाणी से सम्बद्ध—वाणी विषयक “वाग्वै गायत्री” [काठ॰ २३.५] (सु सनिं नव्यांसम्) सुन्दर सम्भजनीय संसेवनीय “वनषण सम्भक्तौ” [भ्वादि॰] ‘नवीयांसम्’ ईकारलोपश्छान्दसः, पुनः पुनः नवीन—नवतर अध्यात्म प्रवचन को (अस्माकं देवेषु प्रवोचः) हमारी इन्द्रियों के निमित्त प्रभाषित करा हमें अपनी इन्द्रियों को तेरी ओर प्रवृत्त करने की प्रेरणा दे।

भावार्थ - हे परमात्मन्! हमारी इन्द्रियाँ विषयों में फँसकर कुमार्ग में गति करती हैं अपितु अधःपतन का कारण बन जाती हैं, परन्तु परमात्मन्! जब तेरी शरण लेते हैं तो तू हमें इन्द्रियों को कुमार्ग में न जाने देने तथा उन्हें सुमार्ग में चलाने का आदेश उपदेश देता है तथापि हमारी भी आकांक्षा इन्द्रियों को तेरी ओर प्रवृत्त करने में हैं “भद्रं कर्णेभिः शणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः” [ऋ॰ १.८९.१] हम कानों से भद्र—अर्चनीय—स्तोतव्य परमात्मा को “भद्रे भन्दनीये” [निरु॰ ११.२०] “भन्दते अर्चतिकर्मा” [निघं॰ १.१६] सुनें उसका श्रवण करें और आँखों से अर्चनीय स्तोतव्य परमात्मा को देखें—दृश्य चित्र में चित्रकार को देखें॥८॥

विशेष - ऋषिः—आजीगर्तः शुनःशेपः (इन्द्रिय भोगों की दौड़ में शरीरगर्त में गिरा विषय लोलुप, उत्थान का इच्छुक)॥<br>

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